विश्वास करुं तो किस पर..
मैं विश्वास करुं तो किस पर...
मूर्त अवस्था के उस भगवान का,
शांत बैठा है जो सदियों से,
लगभग एक सी मुद्रा में,
या उस शैतान जो नाम लेकर उस भगवान का,
आस्तिकों को मुद्राएं बनाने को कहता है ।
हम भी धरम के धृतराष्ट्र बने...
निहारते हैं उसे श्रद्धा भाव से,
अपने मन की इन विभीषण आंखों से,
भगवान ही तो माना था मैंने उसको,
जिसने चीर हरन किया मेरे जज्बातों का,
विश्वास के इस छोटे से आंगन में,
महसूस करता हूं मैं छला-छला,
तस्वीरों के उस मायाजाल में,
जिसे सजाया था मैंने अपने घर की दीवारों पर,
आकार तो कुछ बड़ा था उनका, मेरे बुजुर्गों की तस्वीरों से..
पर बिलकुल विपरीत इरादे लिए,,
धर्मो के ओ भोगी ठेकेदार,
अब मुझे तुमसे छुटकारा चाहिए...
छुटकारा उस छलावे के दौर से,
जो चल रहा था सदियों से....
अज्ञात के भय से निबटने का वो विश्वास..
किया था जो मैंने तुझ पर,
अपने विभीषण मन की इन आंखो से,
पर तुम्हारे इस छल के ‘ऋषि प्रसाद’ के बाद...
मैं विश्वास करुं तो किस पर...
मैं विश्वास करुं तो किस पर......?
बहुत खूब विकास... :)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रियंका जी...आपसे कम खूब है......
हटाएंGood
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