प्रिय द्रोणाचार्य रवीश कुमार,
तब,जब मैं लिटिल था। आगे के कुछ बाल सफेद लिए टीवी पर
एक आदमी आता था। मुझे वो आदमी यानी आप पसंद थे। पसंद इसलिए नहीं थे कि आप आम लोगों
के मुद्दे उठाते थे। शुरुआत में पसंद करने की वजह एकदम बचकानी थी। वो जब आप शुद्ध देसी
भाषा में गंभीर बात कह जाते थे और हमारे चेहरे में हंसी और एक निष्कर्ष रह जाता था। ऐसा
लगता था कि आप सिर्फ इसीलिए आते थे कि ये मामला ऐसा है, इसे दर्शक खुद समझे, हम खाली बात कह रहें हैं। हालांकि कहता तो हर कोई है पर आप कह नहीं रहे थे, कर रहे थे।
मेरे को आपके शो का टाइम नहीं पता था। पर दोपहर में, रविवार को आपकी रिपोर्ट का जब रिपीट टेलीकास्ट आता था। यकीन मानिए..मैंने एमटीवी रोडीज से हटाकर आपका प्रोग्राम ही देखा है। आपके सफेद बालों के बारे में शुरू में ये ख्याल मेरे मन में उपजता था कि यार देखों इत्ते बिजी रहते हैं कि बाल डाई करने का भी टाइम नहीं मिलता। ऐसा ही कुछ मैं आशुतोष के बारे में भी सोचता था। रिपोर्ट देखते देखते मैं कब आपको पसंद करने लगा,मैं भी नहीं जानता। फिर इतिहास की सबसे बड़ी घटना घटी। मैंने पत्रकारिता को बुढ़ापे तक कंधों पर उठाने का फैसला कर लिया। वजह क्या थी, ये अब तक आप समझ गए होंगे। जी हां। सही समझे।
अब बात आपके चकाचौंध वाले स्टूडियों में रेमंड के कोट-पेंट में सिमटने की। सिमटने से मतलब वेश-भूषा से। विचारों और तेवर,स्वभाव अभी भी वही लाल माइक वाले थे। उस 55 मिनट की डिबेट में आप जब बीच-बीच में मासूमियत से कुछ कहकर या सुनकर सादगी से हंस देते थे तो कसम से मैं भी हंस पड़ता था। वो जब आप कहते थे कि मेरी प्रोड्यूसर मुझ पर गुस्सा हो रही है,डिबेट खत्म हो रही है। सबसे अच्छा लगता था। जब आप अॉन एयर रहते हुए भी जमीन नहीं छोड़ते थे। अच्छा लगता था।
2011 में रामलीला मैदान में अन्ना डटे हुए थे और हम अस्पताल में पड़े हुए थे। वो थोड़ा टायफाइड हो गया था जाय मारे। अस्पताल से छुट्टी हो चुकी थी। घर में अनार, केला, सेब लेकर रिश्तेदारों की लाइन लगी हुई थी । और मैं बिस्तर पर लेटकर अनार खाकर बीजों से फ्रिज पर निशाना लगा रहा था। अचानक टीवी पर आप दिख गए। ये वो वक्त था जब अस्पताल में चढ़ा ग्लूकोज असर करने लगा था। हम भी जोश में उठे, मम्मी जरा मैं फिरोज़ (मेरा सिर्फ जरूरत के टाइम पर काम आने वाला दोस्त) के साथ उसके घर पर जाकर पीसी में फिल्म देख आऊं। मां बेटे की खुशी से ज्यादा कुछ नहीं चाहती। बोलीं चले जा, थोड़ा मन बदल जाएगा। आराम से जाना। बस हम निकल लिए।
लाइन बहुत लंबी थी रामलीला मैदान में । बाहर एनडीटीवी
की ओबी देखी। तो रिश्तेदारों के लाए हुए अनार, सेब भी मेरे असर करने लगे। चाल तेज हुई। ओबी के
ड्राइवर के पास पहुंचकर पूछा-अंकल रवीश जी कहां हैं, वो झट से बोले-क्यों इंटरव्यू
देना है। हम भी मन में उनको दो गाली बककर आगे बढ़ लिए। दोस्त के पास वीजीए कैमरे
वाला मोबाइल था, हमने ओबी के बाहर ही फोटू खिंचवाई। और जुगाड़कर घुस
गए रामलीला मैदान के अंदर। यहां-वहां आपको ढूढ़ा। आप कहीं दिखे ही नहीं। करीब 1
घंटे भटके आप नहीं मिले। ये वो वक्त था जब ग्लूकोज़, सेब, अनार सब मेरे को मिलावट वाले लगे रहे थे। आप तो नहीं
मिले..आशुतोष जी मिल गए। आशुतोष वहीं सफेद बाल वाले। हम जाकर चुप्पे से बराबर में
बैठ गए। हैलो सर,तीन झाम-तीन झाम। आप अच्छे लगते हैं,यू आर माई आईडियल,रवीश सर नहीं दिख रहे वो कहां हैं। आशुतोष जी हमको
पूरा देखें, हंसे और बोले, बेटा यहीं कहीं होंगे। वहां से बाहर आकर मैं भी हंसा
था अपनी बेवकूफी पर।
आईआईएमसी में एक दिन आनंद सर बोले, कि रवीश कुमार के शो में कौन-कौन जाएगा। अचानक रैलीनुमा हाथ दिखने लगे। मैंने तो दोनों हाथ उठाए थे। ऐसी भीड़ देखकर फैसला वीकली टेस्ट के नंबरों पर छोड़ दिया गया कि जिसके नंबर ज्यादा। वो टॉपर ( स्वार्थी,धोखेबाज) शो में जाएंगे। इसके बाद एनडीटीवी जाती हुई बस को हमने दूर से हाथ हिलाकर,चेहरे पर हंसी और अंदर खीज लिए विदाई दी। इसके बाद आपको फेसबुक पर एक इमोशनल टाइप मैसेज भी चिपकाया। फेसबुक पर मैंने आपको कई मैसेज भेजे। एक दिन गुस्से में आपको घमंडी समझकर एक क्रांतिकारी मैसेज किया। दो दिन बाद सुबह उठते ही जब मोबाइल देखा तो फेसबुक से कनेक्ट होने होने के चलते आपका मैसेज मिला। लिखा था-‘’विकास मैं फेसबुक पर लंबे समय से सक्रिय नहीं हूं,न ही कोई फ्रेंड रिक्वेस्ट देखी है’’। मैसेज खत्म, आत्मा में तृप्ति,चेहरे पर सुकून का प्रकाश प्रज्जवल्लित। दिन था 16 अक्टूबर 2013। आप मेरे फेसबुक में आज भी फ्रेंड नहीं हैं। लेकिन वो मैसेज मेरे मोबाइल में है। हमेशा रहेगा। होली वाले दिन अॉफिस आना पड़ा था। आंख में आंसू थे। अचानक नजर फेसबुक के जरिए,,एनडीटीवी क्लासिक वाली आपकी वीडियो में पड़ गई। उस 14 मिनट की वीडियो के बाद आज भी जब पत्रकारिता बाजार में खबरों का झोला उठाए कंधे दर्द होने लगते हैं तो आपकी बातें याद कर लेता हूं। ताकत मिलती है, रिश्तेदारों के लाए अनार जितनी।
आपसे मिलने की तमन्ना है, ऐसा कहना नहीं चाहता। ये समझने वाली बात है। मैं आपका फैन नहीं बनना चाहता । वो तो पहले से ही बहुत हैं। मैं रवीश कुमार भी नहीं बनना चाहता। क्योंकि ये मेरे बसकी बात नहीं। आप एकलौते हैं। पर एकलव्य की तरह अपने द्रोणाचार्य को दूर से देखकर विकास बनना चाहता हूं। ( एकलव्य हूं पर अंगूठा नहीं दे सकता,टाइपिंग में दिक्कत होगी,विकास बनने में दिक्कत होगी)। मेरे को आपसे मिलने की जल्दी भी नहीं है। मैं पहले विकास बन जाऊं। तब आपसे मिलूंगा, ताकि जब हम मिलें तो आप मुझ से ये ना पूछें कि क्या नाम हुआ आपका ?
सादर
अंगूठे वाला एकलव्य
विकास
आप सबके पोस्टर की फोटू लेते हैं और मैं आपके पोस्टर की। जगह-इंद्रप्रस्थ मेट्रो स्टेशन।फोटू खींचना मना है। |
मेरे को आपके शो का टाइम नहीं पता था। पर दोपहर में, रविवार को आपकी रिपोर्ट का जब रिपीट टेलीकास्ट आता था। यकीन मानिए..मैंने एमटीवी रोडीज से हटाकर आपका प्रोग्राम ही देखा है। आपके सफेद बालों के बारे में शुरू में ये ख्याल मेरे मन में उपजता था कि यार देखों इत्ते बिजी रहते हैं कि बाल डाई करने का भी टाइम नहीं मिलता। ऐसा ही कुछ मैं आशुतोष के बारे में भी सोचता था। रिपोर्ट देखते देखते मैं कब आपको पसंद करने लगा,मैं भी नहीं जानता। फिर इतिहास की सबसे बड़ी घटना घटी। मैंने पत्रकारिता को बुढ़ापे तक कंधों पर उठाने का फैसला कर लिया। वजह क्या थी, ये अब तक आप समझ गए होंगे। जी हां। सही समझे।
अब बात आपके चकाचौंध वाले स्टूडियों में रेमंड के कोट-पेंट में सिमटने की। सिमटने से मतलब वेश-भूषा से। विचारों और तेवर,स्वभाव अभी भी वही लाल माइक वाले थे। उस 55 मिनट की डिबेट में आप जब बीच-बीच में मासूमियत से कुछ कहकर या सुनकर सादगी से हंस देते थे तो कसम से मैं भी हंस पड़ता था। वो जब आप कहते थे कि मेरी प्रोड्यूसर मुझ पर गुस्सा हो रही है,डिबेट खत्म हो रही है। सबसे अच्छा लगता था। जब आप अॉन एयर रहते हुए भी जमीन नहीं छोड़ते थे। अच्छा लगता था।
2011 में रामलीला मैदान में अन्ना डटे हुए थे और हम अस्पताल में पड़े हुए थे। वो थोड़ा टायफाइड हो गया था जाय मारे। अस्पताल से छुट्टी हो चुकी थी। घर में अनार, केला, सेब लेकर रिश्तेदारों की लाइन लगी हुई थी । और मैं बिस्तर पर लेटकर अनार खाकर बीजों से फ्रिज पर निशाना लगा रहा था। अचानक टीवी पर आप दिख गए। ये वो वक्त था जब अस्पताल में चढ़ा ग्लूकोज असर करने लगा था। हम भी जोश में उठे, मम्मी जरा मैं फिरोज़ (मेरा सिर्फ जरूरत के टाइम पर काम आने वाला दोस्त) के साथ उसके घर पर जाकर पीसी में फिल्म देख आऊं। मां बेटे की खुशी से ज्यादा कुछ नहीं चाहती। बोलीं चले जा, थोड़ा मन बदल जाएगा। आराम से जाना। बस हम निकल लिए।
2011 में रामलीला मैदान के बाहर,सर पे टोपी मैं हूं अन्ना। |
आईआईएमसी में एक दिन आनंद सर बोले, कि रवीश कुमार के शो में कौन-कौन जाएगा। अचानक रैलीनुमा हाथ दिखने लगे। मैंने तो दोनों हाथ उठाए थे। ऐसी भीड़ देखकर फैसला वीकली टेस्ट के नंबरों पर छोड़ दिया गया कि जिसके नंबर ज्यादा। वो टॉपर ( स्वार्थी,धोखेबाज) शो में जाएंगे। इसके बाद एनडीटीवी जाती हुई बस को हमने दूर से हाथ हिलाकर,चेहरे पर हंसी और अंदर खीज लिए विदाई दी। इसके बाद आपको फेसबुक पर एक इमोशनल टाइप मैसेज भी चिपकाया। फेसबुक पर मैंने आपको कई मैसेज भेजे। एक दिन गुस्से में आपको घमंडी समझकर एक क्रांतिकारी मैसेज किया। दो दिन बाद सुबह उठते ही जब मोबाइल देखा तो फेसबुक से कनेक्ट होने होने के चलते आपका मैसेज मिला। लिखा था-‘’विकास मैं फेसबुक पर लंबे समय से सक्रिय नहीं हूं,न ही कोई फ्रेंड रिक्वेस्ट देखी है’’। मैसेज खत्म, आत्मा में तृप्ति,चेहरे पर सुकून का प्रकाश प्रज्जवल्लित। दिन था 16 अक्टूबर 2013। आप मेरे फेसबुक में आज भी फ्रेंड नहीं हैं। लेकिन वो मैसेज मेरे मोबाइल में है। हमेशा रहेगा। होली वाले दिन अॉफिस आना पड़ा था। आंख में आंसू थे। अचानक नजर फेसबुक के जरिए,,एनडीटीवी क्लासिक वाली आपकी वीडियो में पड़ गई। उस 14 मिनट की वीडियो के बाद आज भी जब पत्रकारिता बाजार में खबरों का झोला उठाए कंधे दर्द होने लगते हैं तो आपकी बातें याद कर लेता हूं। ताकत मिलती है, रिश्तेदारों के लाए अनार जितनी।
आपसे मिलने की तमन्ना है, ऐसा कहना नहीं चाहता। ये समझने वाली बात है। मैं आपका फैन नहीं बनना चाहता । वो तो पहले से ही बहुत हैं। मैं रवीश कुमार भी नहीं बनना चाहता। क्योंकि ये मेरे बसकी बात नहीं। आप एकलौते हैं। पर एकलव्य की तरह अपने द्रोणाचार्य को दूर से देखकर विकास बनना चाहता हूं। ( एकलव्य हूं पर अंगूठा नहीं दे सकता,टाइपिंग में दिक्कत होगी,विकास बनने में दिक्कत होगी)। मेरे को आपसे मिलने की जल्दी भी नहीं है। मैं पहले विकास बन जाऊं। तब आपसे मिलूंगा, ताकि जब हम मिलें तो आप मुझ से ये ना पूछें कि क्या नाम हुआ आपका ?
सादर
अंगूठे वाला एकलव्य
विकास
इमोशनल
जवाब देंहटाएंदिल के सारे तामझाम खोल कर रख दिए भाई :) बढ़िया
जवाब देंहटाएंkya baat.... tintin...tu toh emotiional ho gya yaar...dil se likha hai...sir ke dil tak pahunch hi jaegi...
जवाब देंहटाएंbahut dil se likha hai bhaiya emotional type kr diye ndtv mai koi bahut bada source nahi hai nahi to hm wahaa ja kr ravish kumar ko khud hi padh k suna dete....
जवाब देंहटाएंभावुक कर दिये भाई...
जवाब देंहटाएंKrantikari to ye patra hai .... Vikas, Padhte huve muzhe jarasa bhi nahi laga ki main aapki kahani padh raha hun, muzhe lag raha tha kya main bhi Vikas hun ... chalo .. kabhi sath main milne jayenge Ravish ji se ... ;) keep it up buddy ..
जवाब देंहटाएंअविनाश ,अंकुर,अनजान,शिवराज,निकेश,अक्षय जी। सभी का दिल से शुक्रिया। :-)
जवाब देंहटाएंरवीश जी को हमारी तरफ से भी कुछ ऐसा ही.....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..
बेहद दिलचस्प
जवाब देंहटाएंbahut dilchasp ,main bhi ravish ji ko bahut manta hoon haan eklavya ki tareh hi k......
जवाब देंहटाएंbhaiya bas karo rulayega kya..
जवाब देंहटाएंमैं रविश जी को जब क्लास 8 में थे तभी से देखते आया हूँ । आज 11वीं में हूँ अभी भी पसंदिता लाइन है "नमस्कार मैं रविश कुमार..." । हम भी किसी दिन उनसे मिलना चाहेंगे । उनकी हर बात दिल को छु जाती है (आपका यह लेख भी छु गया)। उनकी ग्राउंड रिपोर्टिंग की तो बात ही कुछ और है ।
जवाब देंहटाएंvery well written......really heartfelt! keep it up!
जवाब देंहटाएंTHANX MAM
हटाएंकमाल लिखा है। कुछ-कुछ टाइपिंग की गलतियों के अलावा...इतना लंबा बहुत कम पढ़ा जाता है। ये पढ़ा गया। वो भी पूरे मन से।
जवाब देंहटाएंआगे शुभकामनाएं तो हैये है
Mjhe toh iss article me ravish sir ki jhalak dikhti h
जवाब देंहटाएंWell written!!!!!
सभी का शुक्रिया। आपने समय दिया, आभार। :-)
जवाब देंहटाएंRavish jee k sath meri bhi kahani kuchh aisi hi hai... phir ek din kaynat ne sajish kee aur mujhe unse milne ka mauka mila unke show hum log me.... sach hi hai unke jaisa koi aur nhi.... and this article is soo wonderful... reminds me of my story :) really nice
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दीपाली. :-)
हटाएं"एकलव्य हूं पर अंगूठा नहीं दे सकता,टाइपिंग में दिक्कत होगी,विकास बनने में दिक्कत होगी।" रवीश कुमार आप और हम जैसे लोगों को दूर रह कर भी ऐसे ही प्रेरित करते रहें। उस व्यक्तित्व को अंतरभाव से प्राणाम जो दूसरों के दिलों में एक जैसी भावनाएं उत्पन्न कर देता है। बहुत अच्छा और दृढ और मासूम सा वर्णन किया आपने। :-)
जवाब देंहटाएंप्यारा लिखा है।
जवाब देंहटाएंतुम हो जो बनना चाह रहे हो