'इश्क में शहर होना'
रवीश कुमार अपने शहर नयना के साथ ‘सेल्फी’ ले रहे थे. उनके ‘सेल्फी’ लेने के पल को मैं और साथ के कुछ लोग अपने फोन में उतारने की कोशिश करने लगे. ‘सेल्फी’ लेने के बीच रवीश की एक निगाह तस्वीर उतारते हम लोगों पर पड़ती है. आज ‘इश्क में शहर होना’ किताब को पूरा पढ़ लेने के बाद मुझे वो निगाह चुभ रही है. मैंने भी तो वही काम किया, जो प्रेमी जोड़ों के साथ शहरों में होता है. उनका एकांत छीनना. प्यार के पलों में घूरती निगाहों से एक्स-रे उतारना. इस बात की परवाह किए बगैर कि ये निगाहें उन जोड़ों को आपस में घुलने-मिलने की बजाय मांस नोचने का एहसास करा रही होती होंगी.
उस दिन ‘इश्क में शहर होना’ किताब के एक कार्यक्रम में रवीश की वो निगाह मुझे न देखती तो शायद मैं इस किताब को बेहतर तरीके से न समझ पाता. शुक्रिया रवीश उस निगाह और ‘इश्क में शहर होना’ किताब के लिए. अब इश्क करने और इश्क करते लोगों को देखने में हम कस्बा से शहर हो गए हैं.
‘दिल्ली में महफूज जगह की तलाश दो ही तरह के लोग करते हैं, जिन्हें प्रेम करना है और जिन्हें प्रेम करते हुए लोगों को देखना है. घबराहट में दोनों इतनी तेजी से उठे कि पास की झाड़ियों में भी हलचल मच गई. प्रेमियों को लगा कि पुलिस आ गई है. उसका कहा याद रहा- यह कैसा शहर है? हर वक्त शरीर का पीछा करता रहता है.’
रवीश कुमार और चित्रकार विक्रम नायक की किताब ‘इश्क में शहर होना’ हमें हमसे मिलाती है. खुद से मिलना बहुत जरूरी है. खुद से मिले बिना हम दूसरों से बेहतर तरीके से नहीं मिल सकते हैं, इश्क नहीं निभा सकते हैं. किताब के हर लघु प्रेम कथा(लप्रेक) के साथ विक्रम के बनाए चित्र कहानी में चुप रहने वाली माशूका की तरह रहते हैं, जो बस अपने भावों और रेखाओं से सब कुछ कह जाते हैं. और इस माशूका के साथ रवीश के लप्रेक किसी नए-नए आशिक की तरह प्यार में बेवजह की जाने वाली मीठी बातें करते रहते हैं. ये बातें हमें किताब से जोड़ती हैं. कहीं खुद इश्क में ऐसे एहसासों से गुजरने की वजह से तो कहीं प्रेमी जोड़ों को खुद के घूरने की वजह से. ‘इश्क में शहर होना’ हमें वजह देती है कि क्यों हम इश्क में लो बजट रहकर और सादगी के साथ भी बेवजह प्यार और खुशी के पल ढूंढ़ सकते हैं.
‘इश्क में सिर्फ देखना ही नहीं होता. अनदेखा करना भी होता है.’
यूं तो रश्क होता है कि कोई कैसे इतनी सादगी से इश्क को इतने कम शब्दों में बयां कर सकता है. रवीश की कहानी में कोई हसीना, दीवाना नहीं होता है. प्रेमिका सिनेमा हॉल नहीं होती है. क्योंकि आप और हम भी तो जब इश्क में होते हैं तो किसी के लिए कुछ होते नहीं है. बस जो खुद होते हैं वो बने रहते हैं. सच्ची मोहब्बत भी तो हमें हम बनाए रखती है. ‘इश्क में शहर होना’ हमें अपने अपने शहरों के वो अजनबी हिस्से दिखाती है, जो पहली नजर से देखने पर तो सिर्फ मेट्रो का खंभा या बारिश होने पर छिपने के लिए फ्लाईओवर का निचला हिस्सा मात्र होता है. पर ‘शौक-ए-दीदार’ वाली नजर से यही जगह हमें मिनटों में ताजमहल के तोहफे से भी गहरे एहसास दे जाती है.
‘जान-पहचान की जगहों से अनजान जगह जाना ही इश्क में शहर होना है.’ ‘कौन है ऑरिजनल यहां. यह जो तुम्हारे मेरे बीच प्रेम है, वह न जाने इससे पहले कितनों के बीच घट चुका है.’
अक्सर हम जो किताब पढ़ते हैं. उसके अच्छे पन्नों को हम मोड़ देते हैं. यकीन मानिए आप जब इस किताब को पूरा कर चुके होंगे, तब आपकी किताब भी मेरी किताब की ही तरह लगभग हर पन्ना मुड़े होने की वजह से मोटी हो चुकी होगी. या पैन से नीली या काली. विक्रम नायक के खूबसूरत चित्रों से बचाकर अंडरलाइन कीजिएगा. इश्क में किल्लत वाले दिनों में ये किताब रूई के नरम फाहों की तरह आपको वापस इश्क में भिगोएगी.
‘चलो न इश्क के लिए कुछ करते हैं. आमतौर पर पीपल के पेड़ के नीचे कब तक छिपते रहेंगे हम? जामुन भी गिरता है तो लगता है किसी खाप की गोली लग रही है.'
'इश्क में शहर होना’ किताब हम लोगों के लिए इसलिए भी पढ़ना जरूरी है. क्योंकि हमने इश्क को कुछ सीमाओं में समेट रखा है. उसके कुछ मनगढंत पैमाने सेट कर रखे हैं. जबकि इश्क में सीमा जैसा कुछ होता ही नहीं है. सिर्फ दो लोग होते हैं. इन लोगों के बीच कुछ बातें होती हैं. लड़ाइयां होती हैं. चुप्पी होती है. इश्क में होते हुए बात न किए जाने का भी एक गले से छाती तक जाता हुआ एहसास होता है. ये एहसास प्रेमी जोड़ों के आपस में बात न करने के बाद भी ये यकीन दिलाता है कि हम इश्क में हैं और न बात करना भी इश्क की ईएमआई है, जिसे भरना जरूरी है ताकि उसकी कीमत का एहसास होता रहे, पा लेने के बाद भी.
‘तो कहना क्या है जानू? वह ये कि हम कचरा फैलाने को कहना कहते हैं. इश्क में खामोशी के दो पल भी साफ हो गए तो बचेगा क्या? सफाई या कचरा?'
‘छतरपुर की गुफाओं में चलते-चलते एक दूसरे के लिए मन्नतें मांगते दोनों अपनी चाहत को ख्वामखाह भक्ति में बदलने लगे. अंधेरी गुफा में वो ठहरने का नाटक करता, वह डरने का. स्पर्श उस आशीर्वाद की तरह होता जिसकी कामना वे मंदिरों में करते रहते’
इस किताब को पढ़ते वक्त सबसे दिलचस्प तथ्य तो ये है कि इन लप्रेकों को किताब के लिए नहीं, बस खुद से या सिर्फ कह देने के लिए रवीश ने फेसबुक पर लिख दिया था. इन लप्रेकों को पढ़कर खुद के अतीत या भविष्य में इश्क की कल्पनाओं को करने में मदद मिलती है. अकेले बैठकर अपने मोहब्बत के किस्सों को याद कर मुस्कराने की वजह मिलती है. किताब की भूमिका दमदार है. ये भूमिका इश्क को सोचने की नई वजह देती है.
‘गुस्सा क्यों करती हो. मैं ब्रेक ले लूं. ब्रेक में ही मेरे सवाल लक्स और लिरिल से नहाने चले जाते हैं और जब लौटते हैं तो डोरा बनियान पहनकर. उफ्फ, यह एंकर आशिक-अवारा हो गया है. सुनो तुम टीवी नहीं छोड़ सकते? नहीं ये सांस की बीमारी है. यही छोड़कर जाएगी मुझे, मैं नहीं......’. एक लप्रेक में ये लाइन पढ़कर सोचने लगा कि ये सफेद बालों वाला शख्स जब नहीं रहेगा तब क्या होगा. तब तक रवीश ने क्या कुछ कह दिया होगा, कितना कुछ रह गया होगा..फेसबुक, ट्विटर स्टेट्स, खबरों, रिपोर्टों, किताबों और जिंदगी में. रवीश की भी और हमारी भी. ये सब सोच ही रहा था कि आंख के ‘सीमापुरी बॉर्डर’ पर एक आंसू सा आ गया. आंसू आंख के रास्ते नीचे तो नहीं आया लेकिन अभी लिखते वक्त गले पर कहीं ठहरा हुआ है. पहले सोचा ये बात न लिखूं. लोग पेशा एक होने की वजह से दिखावा या मक्खनबाजी कह सकते हैं. पर मैं लिख पाया क्योंकि दिल से एक आवाज सी आई, ’इश्क में शहर सिर्फ प्रेमिका या प्रेमी के नहीं हुआ जाता है. पसंद के लोगों के भी हुआ जाता है. घूरती नजरों की परवाह करने लगूंगा तो इश्क में शहर होकर खुद को और प्यार को महसूस नहीं कर पाऊंगा. इसी लप्रेक में प्रेमी की सांसें रुकने का हक से भरा प्यारा जवाब दिया था प्रेमिका ने,’....चुप मनहूस!’
रवीश कुमार अपने शहर नयना के साथ ‘सेल्फी’ ले रहे थे. उनके ‘सेल्फी’ लेने के पल को मैं और साथ के कुछ लोग अपने फोन में उतारने की कोशिश करने लगे. ‘सेल्फी’ लेने के बीच रवीश की एक निगाह तस्वीर उतारते हम लोगों पर पड़ती है. आज ‘इश्क में शहर होना’ किताब को पूरा पढ़ लेने के बाद मुझे वो निगाह चुभ रही है. मैंने भी तो वही काम किया, जो प्रेमी जोड़ों के साथ शहरों में होता है. उनका एकांत छीनना. प्यार के पलों में घूरती निगाहों से एक्स-रे उतारना. इस बात की परवाह किए बगैर कि ये निगाहें उन जोड़ों को आपस में घुलने-मिलने की बजाय मांस नोचने का एहसास करा रही होती होंगी.
उस दिन ‘इश्क में शहर होना’ किताब के एक कार्यक्रम में रवीश की वो निगाह मुझे न देखती तो शायद मैं इस किताब को बेहतर तरीके से न समझ पाता. शुक्रिया रवीश उस निगाह और ‘इश्क में शहर होना’ किताब के लिए. अब इश्क करने और इश्क करते लोगों को देखने में हम कस्बा से शहर हो गए हैं.
‘दिल्ली में महफूज जगह की तलाश दो ही तरह के लोग करते हैं, जिन्हें प्रेम करना है और जिन्हें प्रेम करते हुए लोगों को देखना है. घबराहट में दोनों इतनी तेजी से उठे कि पास की झाड़ियों में भी हलचल मच गई. प्रेमियों को लगा कि पुलिस आ गई है. उसका कहा याद रहा- यह कैसा शहर है? हर वक्त शरीर का पीछा करता रहता है.’
''इश्क में शहर होना'' किताब पढ़ने के बाद आज तक के लिए ये लिखने की गुस्ताखी की |
रवीश कुमार और चित्रकार विक्रम नायक की किताब ‘इश्क में शहर होना’ हमें हमसे मिलाती है. खुद से मिलना बहुत जरूरी है. खुद से मिले बिना हम दूसरों से बेहतर तरीके से नहीं मिल सकते हैं, इश्क नहीं निभा सकते हैं. किताब के हर लघु प्रेम कथा(लप्रेक) के साथ विक्रम के बनाए चित्र कहानी में चुप रहने वाली माशूका की तरह रहते हैं, जो बस अपने भावों और रेखाओं से सब कुछ कह जाते हैं. और इस माशूका के साथ रवीश के लप्रेक किसी नए-नए आशिक की तरह प्यार में बेवजह की जाने वाली मीठी बातें करते रहते हैं. ये बातें हमें किताब से जोड़ती हैं. कहीं खुद इश्क में ऐसे एहसासों से गुजरने की वजह से तो कहीं प्रेमी जोड़ों को खुद के घूरने की वजह से. ‘इश्क में शहर होना’ हमें वजह देती है कि क्यों हम इश्क में लो बजट रहकर और सादगी के साथ भी बेवजह प्यार और खुशी के पल ढूंढ़ सकते हैं.
‘इश्क में सिर्फ देखना ही नहीं होता. अनदेखा करना भी होता है.’
यूं तो रश्क होता है कि कोई कैसे इतनी सादगी से इश्क को इतने कम शब्दों में बयां कर सकता है. रवीश की कहानी में कोई हसीना, दीवाना नहीं होता है. प्रेमिका सिनेमा हॉल नहीं होती है. क्योंकि आप और हम भी तो जब इश्क में होते हैं तो किसी के लिए कुछ होते नहीं है. बस जो खुद होते हैं वो बने रहते हैं. सच्ची मोहब्बत भी तो हमें हम बनाए रखती है. ‘इश्क में शहर होना’ हमें अपने अपने शहरों के वो अजनबी हिस्से दिखाती है, जो पहली नजर से देखने पर तो सिर्फ मेट्रो का खंभा या बारिश होने पर छिपने के लिए फ्लाईओवर का निचला हिस्सा मात्र होता है. पर ‘शौक-ए-दीदार’ वाली नजर से यही जगह हमें मिनटों में ताजमहल के तोहफे से भी गहरे एहसास दे जाती है.
‘जान-पहचान की जगहों से अनजान जगह जाना ही इश्क में शहर होना है.’ ‘कौन है ऑरिजनल यहां. यह जो तुम्हारे मेरे बीच प्रेम है, वह न जाने इससे पहले कितनों के बीच घट चुका है.’
अक्सर हम जो किताब पढ़ते हैं. उसके अच्छे पन्नों को हम मोड़ देते हैं. यकीन मानिए आप जब इस किताब को पूरा कर चुके होंगे, तब आपकी किताब भी मेरी किताब की ही तरह लगभग हर पन्ना मुड़े होने की वजह से मोटी हो चुकी होगी. या पैन से नीली या काली. विक्रम नायक के खूबसूरत चित्रों से बचाकर अंडरलाइन कीजिएगा. इश्क में किल्लत वाले दिनों में ये किताब रूई के नरम फाहों की तरह आपको वापस इश्क में भिगोएगी.
‘चलो न इश्क के लिए कुछ करते हैं. आमतौर पर पीपल के पेड़ के नीचे कब तक छिपते रहेंगे हम? जामुन भी गिरता है तो लगता है किसी खाप की गोली लग रही है.'
'इश्क में शहर होना’ किताब हम लोगों के लिए इसलिए भी पढ़ना जरूरी है. क्योंकि हमने इश्क को कुछ सीमाओं में समेट रखा है. उसके कुछ मनगढंत पैमाने सेट कर रखे हैं. जबकि इश्क में सीमा जैसा कुछ होता ही नहीं है. सिर्फ दो लोग होते हैं. इन लोगों के बीच कुछ बातें होती हैं. लड़ाइयां होती हैं. चुप्पी होती है. इश्क में होते हुए बात न किए जाने का भी एक गले से छाती तक जाता हुआ एहसास होता है. ये एहसास प्रेमी जोड़ों के आपस में बात न करने के बाद भी ये यकीन दिलाता है कि हम इश्क में हैं और न बात करना भी इश्क की ईएमआई है, जिसे भरना जरूरी है ताकि उसकी कीमत का एहसास होता रहे, पा लेने के बाद भी.
‘तो कहना क्या है जानू? वह ये कि हम कचरा फैलाने को कहना कहते हैं. इश्क में खामोशी के दो पल भी साफ हो गए तो बचेगा क्या? सफाई या कचरा?'
‘छतरपुर की गुफाओं में चलते-चलते एक दूसरे के लिए मन्नतें मांगते दोनों अपनी चाहत को ख्वामखाह भक्ति में बदलने लगे. अंधेरी गुफा में वो ठहरने का नाटक करता, वह डरने का. स्पर्श उस आशीर्वाद की तरह होता जिसकी कामना वे मंदिरों में करते रहते’
इस किताब को पढ़ते वक्त सबसे दिलचस्प तथ्य तो ये है कि इन लप्रेकों को किताब के लिए नहीं, बस खुद से या सिर्फ कह देने के लिए रवीश ने फेसबुक पर लिख दिया था. इन लप्रेकों को पढ़कर खुद के अतीत या भविष्य में इश्क की कल्पनाओं को करने में मदद मिलती है. अकेले बैठकर अपने मोहब्बत के किस्सों को याद कर मुस्कराने की वजह मिलती है. किताब की भूमिका दमदार है. ये भूमिका इश्क को सोचने की नई वजह देती है.
‘गुस्सा क्यों करती हो. मैं ब्रेक ले लूं. ब्रेक में ही मेरे सवाल लक्स और लिरिल से नहाने चले जाते हैं और जब लौटते हैं तो डोरा बनियान पहनकर. उफ्फ, यह एंकर आशिक-अवारा हो गया है. सुनो तुम टीवी नहीं छोड़ सकते? नहीं ये सांस की बीमारी है. यही छोड़कर जाएगी मुझे, मैं नहीं......’. एक लप्रेक में ये लाइन पढ़कर सोचने लगा कि ये सफेद बालों वाला शख्स जब नहीं रहेगा तब क्या होगा. तब तक रवीश ने क्या कुछ कह दिया होगा, कितना कुछ रह गया होगा..फेसबुक, ट्विटर स्टेट्स, खबरों, रिपोर्टों, किताबों और जिंदगी में. रवीश की भी और हमारी भी. ये सब सोच ही रहा था कि आंख के ‘सीमापुरी बॉर्डर’ पर एक आंसू सा आ गया. आंसू आंख के रास्ते नीचे तो नहीं आया लेकिन अभी लिखते वक्त गले पर कहीं ठहरा हुआ है. पहले सोचा ये बात न लिखूं. लोग पेशा एक होने की वजह से दिखावा या मक्खनबाजी कह सकते हैं. पर मैं लिख पाया क्योंकि दिल से एक आवाज सी आई, ’इश्क में शहर सिर्फ प्रेमिका या प्रेमी के नहीं हुआ जाता है. पसंद के लोगों के भी हुआ जाता है. घूरती नजरों की परवाह करने लगूंगा तो इश्क में शहर होकर खुद को और प्यार को महसूस नहीं कर पाऊंगा. इसी लप्रेक में प्रेमी की सांसें रुकने का हक से भरा प्यारा जवाब दिया था प्रेमिका ने,’....चुप मनहूस!’
Awesome... goin to take grab this book.. review is super awesom " ISHQ ME TANGI" I must say apka aur ravish ji ka blog padh k ek jaisa hi lagta hai...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दीपाली :-)
हटाएं