1.
किताब खरीद भर लेने में जितना वक्त खर्च कर देता हूं. उस वक्त का एक छोटा सा हिस्सा भी किताब पढ़ने में खर्च नहीं कर पाता हूं. बस जहां सोता हूं, वहां हिलते शीशे की एक रैक पर ढेर लगाता जाता हूं.इस ख्याल और डर से कि मैं किताबों में न घुस पाया तो बदला लेने के लिए एक रात सारी बागी किताबें मुझमें घुस आएंगी. शीशे की हिलती रैक से बारी बारी से कूदते हुए आत्महत्या और हत्या सी करती किताबें. बावजूद इसके हर महीने मंगा लेता हूं कुछ किताबें. ये ढेर जितना बढ़ेगा.
पढ़ूं या न पढ़ूं, ढेर होने में उतना मज़ा सा आएगा! इसलिए ही अब तक मंटो की एक भी किताब नहीं ली है. 'तेरा मुंसिफ ही तेरा क़ातिल है' कोई मंटो को कहे, ये बर्दाश्त से बाहर है.
ऐसा नहीं कि किताबों के गिरने और चोट लगने का डर नहीं है. बहुत है. पर लगता है कि इस डर की भी कोई एक कहानी होगी. बस उसी कहानी का लालच मरवाए दे रहा है. ये फालतू सा सब लिख इसलिए दिया है ताकि मेरी तरफ से गवाही देने वाला कोई तो रहे.
किताबें वैसी भी बाइज्जत बरी होने का हुनर रखती हैं. किस्सा यहीं बर्खास्त करता हूं. जल्द दरियागंज जाना होगा. बस से कमबख्त ग़ालिब की हवेली भी नहीं दिखती.
2.
30 साल पुरानी छपी किताब कल हत्थे चढ़ी. गांव वाली रामायण को छोड़ दूं तो इससे पुरानी किताब आज तक हत्थे नहीं चढ़ी थी.किताब के सारे पन्ने पीले से मैले होकर रुक गए हैं. इसके पन्नों का रंग अब नहीं बदलेगा, मेरे मन की तरह. सूंघते हुए कानपुर की काहूकोठी, दरियागंज सी खुशबू आ रही है.
पन्ने पलटने पर सुमेर वाली रेत गिरने सी आवाज़ आती है. किताबों की उम्र का भी भरोसा नहीं. खुद में जितना समेटे रहती हैं, इतने सालों में कितने ही हाथों से गुज़रते हुए न जाने कितना ही खुद में जोड़ लेती होंगी.
या शायद एक भी बार पढ़ी भी न गई हो. या फिर कोई बहुत चिपकाकर रखता हो इस किताब को. इतनी प्रिय कि किताब खरीदने वाले के मरने के बाद चुभने लगी हो. इसलिए ये किताब बेच दी गई या शायद फेंक दी गई. कुछ किताबें अपनों की याद दिलाती हैं. तब हम या तो उन्हें खरीद लेते हैं या दूर कर देना चाहते हैं.
ये किताब भी कहीं से आई होगी. अभी तक खोलकर पढ़ा नहीं है. बस सूंघा है. सिर पर लगी हिलते शीशे की रैक कल थोड़ी और भारी हो गई.
ये सब किताबें एक दिन जला दी जाएंगी. नीचे तकिये पर टिके सिर के साथ
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