'1981. एक तरफ अस्पताल में पड़ी बीवी. दूसरी तरफ ड्रग्स के नशे में पड़ा बेटा.
डैड ने दोनों जंग लड़ी, अकेले. आज ज़िंदा हूं, तो उनकी वजह से. उस वक्त थैंक्यू बोलना चाहा, पर शब्द ही नहीं मिले. अमन और शांति के लिए कई पदयात्राएं की. हिरोशिमा से नागासाकी. मुंबई से अमृतसर. लेकिन उससे कहीं ज़्यादा लंबा और मुश्किल सफर था कोर्ट और पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाना. लीगल खर्चे इतने बढ़ने लगे कि डैड को अपना घर तक बेचना पड़ा. लेकिन उन्होंने एक बार भी जताया नहीं. उस बार फिर मैंने थैंक्यू बोलना चाहा, फिर शब्द नहीं मिले.
एक पूरी उम्र सोचने के बाद मुझे लगता है कि आज मुझे शब्द मिल गए हैं. यू डिजर्व ए बेटर सन डैड. आपका कोई मुझसे बेहतर बेटा होना चाहिए था. जो आपका सहारा बनता न कि मेरी तरह बेसहारा करता. जो अपनी ईमानदारी के लिए नाम कमाता, अपनी बेईमानी के लिए नहीं. जो आप जैसा ज़्यादा होता और मुझ जैसा कम. यू नो वट डैड. वो दूसरा बेटा आपसे कभी उतना प्यार नहीं कर पाता, जितना मैं आपसे प्यार करता हूं. कभी आपसे कह नहीं पाया- पर यू आर माय हीरो डैड.'
एक बाप कभी ये नहीं चाहेगा कि बेटे के सामने वो हीरो न रहे. हर बाप बेटा मन ही मन एक दूजे के लिए हीरो बनना चाहते हैं. सुनील दत्त हीरो थे और संजय हीरो बनने की कोशिश करता एक बेटा, जो बाप बनकर भी हीरो नहीं बन पाया.
संजय दत्त ने अब तक झूठ बोलना बंद नहीं किया. उसने ड्रग्स के लिए एक फ़िल्म में ये झूठ तक बुलवा दिया कि पहली बार ड्रग्स बाप से गुस्से की वजह से लेना शुरू किया. संजय ने पिता से प्यार किया लेकिन प्यार कुछ वादे कुछ सच्चाई चाहते हैं. संजय वो कभी नहीं निभा पाया. एक कंफ्यूज़न सी रही. इस कंफ्यूजन का पिटारा ये बना कि कई गलतियां इकट्ठी हो गईं. लेकिन संजू दिल का बुरा नहीं था. हरकतों का बुरा था. हरकतें जो शरीर मन और माहौल को देखकर करने लगता है. लेकिन दिल कहीं छिपा होता है. नशे के पाउडर से बचने के लिए ईमानदारी की झिल्ली लगाए.
संजय की ज़िंदगी भी ऐसी ही रही थी. संजय दत्त की बेस्ट बात ये है कि उसने अपना सच कभी छिपाया नहीं. थोड़ा सा रिसर्च करने पर वो सब मिल जाएगा, जो संजय के क़रीब होकर गुजरा. लेकिन इसमें उस क्वेश्चन मार्क से बचना होगा, जो 'आपकी इज्ज़त उतार देता है.'
संजय पूरी ज़िंदगी गड्डमड्ड रहा. पति, बेटा, भाई, प्रेमी, दोस्त, एक्टर...संजय सबमें भरपूर ख़राब रहा. लेकिन वो दो मामलों में सबसे अच्छा रहा. संजय का दिल और पिता. संजय अपनी ज़िंदगी में इतनी चीज़ों से होकर गुज़रा है कि इसे एक धागे में पिरौना, सभी किरदारों को साथ लाना मुश्किल है. 'कोई तो राइटर होगा, जो इस बात को समझेगा.'
राजकुमार हिरानी एंड टीम ख़ूबसूरत राइटर हैं. वो ये बात समझ गया. लेकिन संजय पुराण को एक फ़िल्म में पिरौना मुश्किल काम है. लिहाजा तीन लोग आगे आए. सुनील दत्त, संजय और संजय दत्त की ज़िंदगी के कई किरदारों का मिक्सचर कमली. बोले तो घपा घप वाला कमली.
हम सबकी ज़िंदगी में कई ऐसे लोग होते हैं, जो बिखरने से बचाए रखने की कोशिश में हमेशा सुई धागा लिए साथ घूमते रहते हैं. ऐसे लोगों को मिला दिया जाए तो कमली (विकी कौशल) बनते हैं.
'हाथ की लकीरें भी कमाल करती हैं. मुट्ठी में रहती हैं पर काबू में नहीं.'
संजय लकीरों सा रहा, कभी काबू में नहीं आ पाया. उसे असल ज़िंदगी में मां का वो टेप भी याद नहीं रहा, ''किसी भी बात से ज्यादा संजू अपनी विनम्रता और चरित्र बचाए रखना. कभी दिखावा मत करना. हमेशा विनम्र रहना और बड़ों की इज़्ज़त करना. यही एक बात होगी जो तुम्हें दूर तक ले जाएगी. ये तुम्हें तुम्हारे काम में भी मदद करेगी.''
संजय ये टेप सुनकर ड्रग्स से तो निकल आया. लेकिन सब जल्दी भूल गया. संजय दिल का अच्छा था. दिल के अच्छे लोग घबरा जल्दी जाते हैं. बस अपनों को बचाए रखना चाहते हैं, शायद तभी संजय ने....
लेकिन ऐ सर्केट, टेंशन नहीं लेने का....अपुन है न.
अपुन यानी सुनील दत्त. एक रिफ्यूजी. जो दिल्ली की सड़कों पर सोया. रेडियो में काम किया. बंबई जाकर काम किया. एक बड़ी हीरोइन को बचाने के लिए आग में कूदा. दिल का मासूम वो रिफ्यूजी, उस आग से ज़िंदा निकल आया और पूरी ज़िंदगी चिंगारियों को महसूस करता रहा और ऐसी ही किसी एक आग में जलकर गायब हो गया. कानों में खुद को 'टेररिस्ट का बाप' सुनते हुए.
लेकिन उस्ताद नंबर तीन ने क्या कहा था? कहा था- 'कुछ तो लोग कहेंगे....लोगों का काम है कहना. छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना..'
'संजू' संजय दत्त की बायोपिक से ज़्यादा सुनील दत्त और कमली जैसे लोगों की कहानी है. संजय दत्त के सारे सच एक फ़िल्म में बताए गए तो फिल्म बिखर सकती है. जैसे बोमन ईरानी फ़िल्म में मरकर फिर ज़िंदा होता है. ऐसी गलतियां राजू से हुई, क्योंकि कुछ कहानियां बिखरी होती हैं, संजय दत्त की ज़िंदगी की तरह.
लेकिन कमली और सुनील दत्त जैसे लोग, उनके सच पूरे और खरे हैं. इन्हीं किरदारों की मदद से कुछ कुछ कहानियां राजू छू भी लेते हैं. जैसे अमरीका में संजय की खबर सुनता कमली और अचानक न्यूज़ चैनल के वॉइस ओवर में हल्के से रिचा शर्मा का नाम आना.
'मैं भी बढ़िया, तू भी बढ़िया... प्रेमिकाओं को क्यों भूला सांवरियां?
संजय और राजू ने ड्रग्स, हथियार पर तो बात की. लेकिन प्रेम, जहां संजय ने सबसे ज़्यादा रिवीजन किया. उसे बस 300 वाले आंकड़े में निपटा दिया. तब जबकि किसी भी दौर में प्यार पर जितनी ज़्यादा बात की जाएगी, रेगिस्तान समंदर की तरफ उतना ही बढ़ेगा.
क्वेश्चन मार्क पीछा नहीं छोड़ेंगे बाबा. ऐसे ही किसी क्वेश्चन मार्क का जवाब तब पूर्ण विराम में बदल गया था, जब किसी ने तुमसे कहा होगा- 'बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम. कसम चाहे ले लो....' या जब सुनील साहेब ने नरगिस से सवाल पूछा होगा- मुझसे शादी करोगी? जवाब पूर्ण विराम में था. लेकिन ये विराम कभी पूर्ण नहीं रहा. ये पूर्ण विराम रॉकी के प्रीमियर पर उस बीच वाली खाली कुर्सी पर बैठा रहा, जहां नरगिस को बैठना था.
लेकिन जैसा उस्ताद नंबर-2 अमृता प्रीतम वाले साहिर लुधियानवी कह गए हैं. ''ना मुंह छुपाके जिए हम. ना सिर झुका के जिए. सितमगरों की नज़र से नज़र मिलाकर जिए.''
संजय की कहानी बहुत उलझी है. लिखना और दिखाना दोनों मुश्किल है. 'कोई अच्छा राइटर ही होगा, जो बात को समझेगा.'
'ऐ सर्केट टेंशन नहीं लेने का....अपुन है न.'
क्योंकि इट इज ओके टू बी संजय दत्त.
संजय दत्त: नरगिस की पप्पी से जादू की झप्पी तक
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