6ठी, 7वीं, 8वीं, 9वीं फेल सीधा 10वीं करें. 11वीं फेल सीधा 12वीं करें.
हम सब 'सीधा' करना चाहते हैं. डायरेक्ट एक्शन. बीच का सफ़र होता सुंदर है लेकिन सब्र कहां से लाएँ. मगर एक चीज़ पर ज़ोर कहां चलता है. प्यार. फटाक से हो भी जाए लेकिन परवान चढ़ता है आहिस्ता...आहिस्ता.
तभी इम्तियाज़ अली के कहने पर इरशाद कामिल कलम उठाकर लिखता है,
'तुम मिलो रोज़ ही
मगर है ये बात भी
मेरे होना आहिस्ता..आहिस्ता.'
ये सुनकर दुनियाभर की लैलाएं और उनके तमाम हुए मजनू दिलों की घुसपैठ पर काबू पाएं तो पाएं कैसे. आहिस्ता आहिस्ता होएं तो होएं कैसे?
'पूछे दिल तो मैं क्या कहूं भला...दिल सवालों से ही न दे रुला.. होता क्या है आहिस्ता आहिस्ता'
ये आहिस्ता आहिस्ता आज का थोड़ी है. बरसों पुराना है. 'तुम्हें क्या लगता है ये हम कर रहे हैं.' हम सबकी कहानियां लिखी हुई हैं. तेज़ तो सांसें होती हैं प्यार तो होगा आहिस्ता आहिस्ता.
यही तो वो मूंछ वाला पंकज उधास भी कह गया था. जिसकी मूंछों के नीचे उसकी मुस्कान छिपी रही और सालों तक हम उसे पंकज उदास पुकारते रहे. लेकिन वो बेपरवाह रेगिस्तान पर किसी पार्क की मेज डालकर बैठा रहा. हाथ में गोल कांच का शो पीस लिए हुए. नहीं वो शो पीस दिल नहीं, कुछ और था.
लंबे बालों वाली लड़की, जिसकी रंगोली एक अंग्रेज़ ने खराब कर दी थी..आहिस्ता आहिस्ता.
लंबे बालों और लटों वाली लड़कियां इस दुनिया में नदियों का साथ देने आती हैं. नदियां सूखें तो कुछ तो रहे जिसे देखकर मन गीला हो सके. आंखों को तराई मिल सके. आज़ादी वाले नारों ने लड़कियों के बाल छोटे कर दिए और तराई वाली आंखें पत्थर. कोई इन नारों के शोर में चिल्लाए तो क्या चिल्लाए?
पंकज के गले में ज़फ़र गोरखपुरी आहिस्ता से शब्द डालते हैं,
'आाहिस्ता कीजिए बातें
धड़कनें कोई सुन रहा होगा
लफ्ज़ गिरने ना पाएं होंठों से
वक़्त के बाथ उनको चुन लेंगे
और आहिस्ता कीजिए बातें'
मगर लोग सुनते कहां हैं. आहिस्ता आहिस्ता भी कैसे बिगाड़ा जा सकता है. इसे समझना चाहो तो इरशाद कामिल आकर खड़े होते हैं. साथ में एक टोपी वाला आदमी हिमेश है और चिल्लाए जा रहा है.
'साँसें मेरी ये तुझमें बसी हैं
यादों की परछाइयां तन्हाइयां
तुमसे ही हैं
तुम दिल में शरीक हुए
आहिस्ता आहिस्ता....'
बिना ये समझे कि वो इतनी तेज़ से बोलकर आहिस्ता आहिस्ता को ख़त्म कर रहा है.
आहिस्ता आहिस्ता को तो आहिस्ता आहिस्ता बोलना होता है. ज़बान पर आहिस्ता न आए तो हिंदी का वो चैप्टर याद कर लेना चाहिए, जिसमें पर्यायवाची शब्द लिखने होते थे. ये चैप्टर अपनी जांघों पर खोलकर जयदीप साहनी बैठता है और 'छैया छैया' करके आए सुखविंदर से कहता है- 'दिल से' वाले शाहरुख़ को लव हो गया है. वो राज कहता है न, 'कल मैंने उसे पहली बार देखा और लव हो गया.' पर फटाक से लव राज को हुआ था तानी को नहीं.
तभी तो सुखविंदर पीला टिफिन ले जाते हुए राज को देख कहता है,
'तू सब्र तो कर मेरे यार
ज़रा सांस तो ले दिलदार
चल फिक्र नू गोली मार यार
हैं दिन जिंदड़ी दे चार
होले होले हो जाएगा प्यार चल यार'
फिर भी न होए सब्र तो रुक मत. किए जा, जिए जा. सांसें यूज़ एंड थ्रो होती हैं. मुफ्त की सांसें लिए जा, छोड़े जा. जैसे 'बचना ऐ हसीनो' का राज शर्मा पंजाबी कुड़ी माही को चूमकर हैरान होता है और माही भी आंखों के आंसू पोछ रही होती है.
तब अपना विशाल और श्रेया अंविता की लिखी चिट्ठी गाते हैं,
'आहिस्ता आहिस्ता
मुझे यकीन हो गया
आहिस्ता आहिस्ता
ये दिल कहीं खो गया
आहिस्ता...आहिस्ता.'
लेकिन आहिस्ता आहिस्ता सिर्फ़ प्यार ही नहीं होता. निंदिया भी आती है कई बार अकेले पंखा देखते हुए या कई बार हमारे लोक संगीत गीतों से निकलीं लोरियां. लेकिन अब फ़िल्मों में मांएं ही नहीं होती लोरियां तो भूल जाइए.
जावेद अख़्तर अकड़ और नुख्तों के साथ कहते हैं, लोरी अब बेटा भी सुनाएगा और गुमान से एक पर्ची पकड़ाते हैं. उदित स्वदेस के लिए गाता है,
'थपकती हैं इस दिल को याद कई
यादों के पालने में कोई खोयी खोयी बात है
मेरे खोए सपने दिखला रे
यादों का पालना झुला रहे
आहिस्ता आहिस्ता...'
पालने के झूलने से किसी की हवा में झूलती ज़ल्फ़ें याद आ जाएं तो इसे बतुकी भी कह सकते हैं और पुल भी.
मगर उस इलाहाबादी मुस्तफा ज़ैदी का ज़िक्र न किया तो कराची की कब्र में पड़ा वो हमें गरिया देगा. ज़ाहिर है आहिस्ता आहिस्ता. क्योंकि वो भी तो कहता था,
'चले तो कट ही जाएगा सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
हम उस के पास जाते हैं मगर आहिस्ता आहिस्ता
यूँ ही इक रोज़ अपने दिल का क़िस्सा भी सुना देना
ख़िताब आहिस्ता आहिस्ता नज़र आहिस्ता आहिस्ता'
दिल के किस्से यकीनन अलग-अलग होंगे. या शायद एक भी हों. जो भी हो चिंता नक्को. अभी अपना जग्गी बाकी है. चित्रा वाला जग्गी. हरमोनियम के साथ दांत भीचता, मुस्कुराता. अमीर मिनाई के अल्फ़ाज़ों को लिए हुए.
'हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क है इतना
इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता
वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूँ उनसे
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता'
फिर भी न होए किसी से प्यार आहिस्ता आहिस्ता... तो धीरे-धीरे से मेरी ज़िंदगी में आना. होले-होले कुछ ठहरना, कुछ भागना.
पहली, दूसरी, तीसरी मुहब्बत में फेल? अगली मुहब्बत करें. सीधे नहीं...
क्योंकि प्यार तो हो ही जाना है आहिस्ता...आहिस्ता.
हम सब 'सीधा' करना चाहते हैं. डायरेक्ट एक्शन. बीच का सफ़र होता सुंदर है लेकिन सब्र कहां से लाएँ. मगर एक चीज़ पर ज़ोर कहां चलता है. प्यार. फटाक से हो भी जाए लेकिन परवान चढ़ता है आहिस्ता...आहिस्ता.
तभी इम्तियाज़ अली के कहने पर इरशाद कामिल कलम उठाकर लिखता है,
'तुम मिलो रोज़ ही
मगर है ये बात भी
मेरे होना आहिस्ता..आहिस्ता.'
ये सुनकर दुनियाभर की लैलाएं और उनके तमाम हुए मजनू दिलों की घुसपैठ पर काबू पाएं तो पाएं कैसे. आहिस्ता आहिस्ता होएं तो होएं कैसे?
'पूछे दिल तो मैं क्या कहूं भला...दिल सवालों से ही न दे रुला.. होता क्या है आहिस्ता आहिस्ता'
ये आहिस्ता आहिस्ता आज का थोड़ी है. बरसों पुराना है. 'तुम्हें क्या लगता है ये हम कर रहे हैं.' हम सबकी कहानियां लिखी हुई हैं. तेज़ तो सांसें होती हैं प्यार तो होगा आहिस्ता आहिस्ता.
यही तो वो मूंछ वाला पंकज उधास भी कह गया था. जिसकी मूंछों के नीचे उसकी मुस्कान छिपी रही और सालों तक हम उसे पंकज उदास पुकारते रहे. लेकिन वो बेपरवाह रेगिस्तान पर किसी पार्क की मेज डालकर बैठा रहा. हाथ में गोल कांच का शो पीस लिए हुए. नहीं वो शो पीस दिल नहीं, कुछ और था.
लंबे बालों वाली लड़की, जिसकी रंगोली एक अंग्रेज़ ने खराब कर दी थी..आहिस्ता आहिस्ता.
लंबे बालों और लटों वाली लड़कियां इस दुनिया में नदियों का साथ देने आती हैं. नदियां सूखें तो कुछ तो रहे जिसे देखकर मन गीला हो सके. आंखों को तराई मिल सके. आज़ादी वाले नारों ने लड़कियों के बाल छोटे कर दिए और तराई वाली आंखें पत्थर. कोई इन नारों के शोर में चिल्लाए तो क्या चिल्लाए?
पंकज के गले में ज़फ़र गोरखपुरी आहिस्ता से शब्द डालते हैं,
'आाहिस्ता कीजिए बातें
धड़कनें कोई सुन रहा होगा
लफ्ज़ गिरने ना पाएं होंठों से
वक़्त के बाथ उनको चुन लेंगे
और आहिस्ता कीजिए बातें'
मगर लोग सुनते कहां हैं. आहिस्ता आहिस्ता भी कैसे बिगाड़ा जा सकता है. इसे समझना चाहो तो इरशाद कामिल आकर खड़े होते हैं. साथ में एक टोपी वाला आदमी हिमेश है और चिल्लाए जा रहा है.
'साँसें मेरी ये तुझमें बसी हैं
यादों की परछाइयां तन्हाइयां
तुमसे ही हैं
तुम दिल में शरीक हुए
आहिस्ता आहिस्ता....'
बिना ये समझे कि वो इतनी तेज़ से बोलकर आहिस्ता आहिस्ता को ख़त्म कर रहा है.
आहिस्ता आहिस्ता को तो आहिस्ता आहिस्ता बोलना होता है. ज़बान पर आहिस्ता न आए तो हिंदी का वो चैप्टर याद कर लेना चाहिए, जिसमें पर्यायवाची शब्द लिखने होते थे. ये चैप्टर अपनी जांघों पर खोलकर जयदीप साहनी बैठता है और 'छैया छैया' करके आए सुखविंदर से कहता है- 'दिल से' वाले शाहरुख़ को लव हो गया है. वो राज कहता है न, 'कल मैंने उसे पहली बार देखा और लव हो गया.' पर फटाक से लव राज को हुआ था तानी को नहीं.
तभी तो सुखविंदर पीला टिफिन ले जाते हुए राज को देख कहता है,
'तू सब्र तो कर मेरे यार
ज़रा सांस तो ले दिलदार
चल फिक्र नू गोली मार यार
हैं दिन जिंदड़ी दे चार
होले होले हो जाएगा प्यार चल यार'
फिर भी न होए सब्र तो रुक मत. किए जा, जिए जा. सांसें यूज़ एंड थ्रो होती हैं. मुफ्त की सांसें लिए जा, छोड़े जा. जैसे 'बचना ऐ हसीनो' का राज शर्मा पंजाबी कुड़ी माही को चूमकर हैरान होता है और माही भी आंखों के आंसू पोछ रही होती है.
तब अपना विशाल और श्रेया अंविता की लिखी चिट्ठी गाते हैं,
'आहिस्ता आहिस्ता
मुझे यकीन हो गया
आहिस्ता आहिस्ता
ये दिल कहीं खो गया
आहिस्ता...आहिस्ता.'
लेकिन आहिस्ता आहिस्ता सिर्फ़ प्यार ही नहीं होता. निंदिया भी आती है कई बार अकेले पंखा देखते हुए या कई बार हमारे लोक संगीत गीतों से निकलीं लोरियां. लेकिन अब फ़िल्मों में मांएं ही नहीं होती लोरियां तो भूल जाइए.
जावेद अख़्तर अकड़ और नुख्तों के साथ कहते हैं, लोरी अब बेटा भी सुनाएगा और गुमान से एक पर्ची पकड़ाते हैं. उदित स्वदेस के लिए गाता है,
'थपकती हैं इस दिल को याद कई
यादों के पालने में कोई खोयी खोयी बात है
मेरे खोए सपने दिखला रे
यादों का पालना झुला रहे
आहिस्ता आहिस्ता...'
पालने के झूलने से किसी की हवा में झूलती ज़ल्फ़ें याद आ जाएं तो इसे बतुकी भी कह सकते हैं और पुल भी.
मगर उस इलाहाबादी मुस्तफा ज़ैदी का ज़िक्र न किया तो कराची की कब्र में पड़ा वो हमें गरिया देगा. ज़ाहिर है आहिस्ता आहिस्ता. क्योंकि वो भी तो कहता था,
'चले तो कट ही जाएगा सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
हम उस के पास जाते हैं मगर आहिस्ता आहिस्ता
यूँ ही इक रोज़ अपने दिल का क़िस्सा भी सुना देना
ख़िताब आहिस्ता आहिस्ता नज़र आहिस्ता आहिस्ता'
दिल के किस्से यकीनन अलग-अलग होंगे. या शायद एक भी हों. जो भी हो चिंता नक्को. अभी अपना जग्गी बाकी है. चित्रा वाला जग्गी. हरमोनियम के साथ दांत भीचता, मुस्कुराता. अमीर मिनाई के अल्फ़ाज़ों को लिए हुए.
'हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क है इतना
इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता
वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूँ उनसे
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता'
फिर भी न होए किसी से प्यार आहिस्ता आहिस्ता... तो धीरे-धीरे से मेरी ज़िंदगी में आना. होले-होले कुछ ठहरना, कुछ भागना.
पहली, दूसरी, तीसरी मुहब्बत में फेल? अगली मुहब्बत करें. सीधे नहीं...
क्योंकि प्यार तो हो ही जाना है आहिस्ता...आहिस्ता.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें