पुराने स्कूटर और मोटर साइकिलें जब बिकती हैं तो गद्दी पर सालों से बैठी यादें हमारे भीतर आ जाती हैं.
किसी भी गाड़ी का शीशा कितना कुछ देख चुका होता है. दुपहिया गाड़ियां सिर्फ़ भारी ट्रैफिक से निकलने का सुख नहीं देती हैं. ये सुख देती हैं कि शीशों से पीछे बैठे लोगों को भी देखा जा सके.
कोई ओवरटेक करे तो करे मगर कुछ चेहरे पीठ से सीना चिपकाए बैठे रहें, शीशे में दिखते रहें. ट्रैफिक अपने आप छट जाएगा.
'वो स्कूटर है या..?'
'बेच दिया. पर शीशा रखा है.'
कितने लोग होंगे, जो अपने स्कूटर, मोटरसाइकिलों के शीशे बचाए रखते होंगे. प्यार में डूबा योगी बचाए रखता है. जो शादी बाद अपनी प्रेमिका के बच्चों से मामा-मामा सुनता है और ऋषिकेष की गंगा में कूद जाता है.
आग सेंकते हुए पुरानी प्रेमिका को साक्षी मानते हुए वो नई प्रेमिका के सामने फवरेट गाना सुनाता है.
'कौन सा था आपका फेवरेट गाना?
बड़े अच्छे लगते हैं. ये धरती, ये नदियां ये रैना.
और?
और तुम...'
वक़्त के साथ हम सबके तुम बदलते हैं. कोई तुम कम नहीं होता. तुम.. तो तुम होता है.
ये योगी जैसे लोग ही होते हैं, जो ये ताकत देते हैं कि आप अपनी बात रख पाएं. वो सारी शिकायतें कह पाएं जिनके साथ रहना मुश्किल होता है.
तभी शायद शहरों के ट्रैफिक में शीशा न रहे तो अपनी चीजों को छुपाएं कैसे?... से सोचना पड़ता है.
जिंदगी पासवर्ड मांगती है. इतने पासवर्ड आएं तो आएं कहां से? इसलिए शायद पैदा होने की तारीख़ों या पैदा होने को सार्थक बनाने वाले लोगों के नाम पर पासवर्ड रखे जाने लगें.
सालों साल लोग रहें न रहें. पासवर्ड वही रहता है. फिर नए लोग इस कदर जुड़ते हैं कि सुकून की टंकी हाउसफुल हो जाती है. शीशा बिना पानी मारे चमकने लगता है. लोग ज़्यादा प्यारे दिखने लगते हैं.
वैसे भी Objects in the Mirror are closer than they appear.
पासवर्ड बदल भी देने चाहिए. क्योंकि 'ना तू राजा ना मैं रानी, आओ कर दें ख़त्म कहानी.'
जब भी कोई कहानी ख़त्म होती है एक नई कहानी शुरू होती है. सूरज की रौशनी से जिनके चेहरे रंग से भर जाते हैं, उन किरदारों की कहानी. ऐसे किरदार 'क़रीब क़रीब सिंगल' की तरह या होने के नाते... सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, असम घूमते हुए खूब मिलते हैं.
जब खिड़की वाली सीट पर बैठे हुए किनारे के पहाड़ और खाई देखें तो हवा के साथ बनते बिगड़ते चले जाते हैं. मानो हवा ने कोई स्कूल वाली ब्रश उठा रखी है. फटाक से चेहरे बने और बिगड़ते चले जाएं. रस्ते में कार रुके तो किसी झरने से मुंह धोकर चेहरे पर सालों से लगा पासवर्ड बदल लिया जाए.
'वो जो था ख़्वाब सा. क्या कहें कि जाने दें. ये जो है कम से कम... ये रहें या जाने दें.'
राजशेखर की इस लाइन को रहने दें या जाने दें. मगर जो जाना चाहिए, वो चले ही जाए. लेकिन कुछ आई हुई चीज़ें कम से कम में होते हुए भी बची रहनी चाहिए. क्योंकि एक कवि कह गया है, 'सब कुछ होना बचा रहेगा...'
तो जो बचा हुआ है, उसके नाम स्याही या बिना स्याही के लिखे खतों को चौखट पर छोड़ आना चाहिए. पढ़ने वाले पढ़कर चुप रहेंगे, समझने वाले समझकर दौड़ पड़ेंगे खतों को लिखने वाले हाथों की तरफ.
और वो न दौड़े तो रास्ते में आते-जाते किसी मोटरसाइकिल और स्कूटर के शीशों में शक्ल देख लेनी चाहिए.
और हल्के से कहना चाहिए, 'आदतन तो सोचेंगे...मगर जाने दे.'
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