भावुकता का रिवीज़न डन, भारत माता की जय


राहुल, नरेंद्र उम्र के फासले पर खड़े दो लड़के थे. दोनों ने एक नौकरी जॉइन की.

नौकरी की डिमांड थी कि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ रहना है. ये दोनों जब भी ड्यूटी पर रहते तो इंतज़ाम कुछ ऐसा था कि पूरी पब्लिक को मज़ा मिलता. सालों साल ऐसे ही चलता रहा. नाम और उम्र के फ़ासले बदलते रहे और पब्लिक तालियां पीटती रही. पब्लिक इंटरटेंमेंट चाहती है पर क्रिएटिविटी के साथ. वैसे भी कहानी वही होती है जो या तो हँसाए या रुलाए. बीच का कुछ होता नहीं है. लेकिन कुछ भी स्थिर नहीं है. इसलिए मैं, हम और आप सब भूल जाते हैं. जैसे हम तेज बहादुर की वो खराब दाल और रोटी वाले वायरल वीडियो को भूल गए. वो आदमी पकी हुई रोटी मांगता है और नौकरी से निकाल दिया जाता है. हम बस चिल्लाते हैं कि सेना की हालत खराब है, ये नेता चोर हैं.


सरकारें बदलती हैं. हर सरकार मुंहतोड़ जवाब देती है. हम उस मुंहतोड़ जवाब से सीनाचौड़ किए मीम बनाने में लग जाते हैं. कभी इस पार्टी का, कभी उस पार्टी का. बेसिक प्रॉब्लम ही यही है कि बोर्ड एग्ज़ाम जब तक आए नहीं...रिवीज़न नहीं करना है. जब कोई हमला होता है, आग लगती है, मंदिरों में भगदड़ बचती है, रेप के बाद मोमबत्ती जलती है. हम रिवीज़न करने में जुट जाते हैं.

'मेरे पास शब्द नहीं हैं.
बदला चाहिए बदला.
अब और नहीं.
फलानी सरकार निकम्मी साबित हुई.'

रिवीज़न डन. भारत माता प्लीज़ ये सेमेस्टर पास करा देना. प्रसाद चढ़ाउंगा. पास होते ही नया फ़ेसबुक कवर लगाऊंगा.



फिर हम सही लोगों से सवाल करना बंद कर देते हैं. सबसे सही हम होते हैं.  जैसे मैं. खुद कोई दूध का धुला नहीं हूं. खूब 'हरमपंथी' की होगी. लेकिन जैसे ही एहसास हुआ, वो 'हरमपंथी' रिपीट नहीं की.

ऐसे ही हरमपंथी रिपीट न हो हमारे आसपास. इसके लिए हम सवाल करते हैं. लेकिन दूसरों से. सरहद पर गोली चली तो न्यूज़ चैनल वालों ने रिटायर्ड फौजियों को 5500 रुपये और मूंछों में स्ट्रीम प्रेस देकर स्क्रीन पर बैठा दिया. किसी भी विशेषज्ञ से बेहतर सॉल्यूशन एक फौजी दे सकता है. लेकिन वो जो सही सॉल्यूशन देगा तो अगली बार उसे टीवी पर बुलाया जाएगा. जवाब है नहीं. इनपुट वाला कॉरिडेनेटर से प्रॉड्यूसर बोलेगा- यार वो डल है, बोल नहीं पाता है. उसे छोड़ो...ब्रिगेडियर मुच्छड़ को बुलाओ.


अब उसने जो ये फ़ैसला किया न कि उग्र वालों को बुलाना है..चुप वालों को नहीं. इसके दोषी हम हैं. क्योंकि हमें शाहरुख खिची चमड़ी में दर्द-ए-डिस्को करते हुए अच्छा लगता है लेकिन सालों साल थियेटर में घिस चुका बंदा फ़िल्मों में जब गंगा घाट पर बेटी की ''इज़्ज़त'' के लिए रोता है तो एक तबका ही समझ पाता है. बड़ा तबका तब इसी आदमी को कहीं सड़क पर देखता है तो कहता है- आपको कहीं देखा है. अरे हां, जस्ट चिल ढोंढू. पर आपका नाम भूल रहा हूं.

'जी मेरा नाम संजय मिश्रा है.'

हम सबने अपने-अपने हिस्सों की आंखों देखी को सीमित कर दिया है. अभी कुछ दिन ही होंगे, एक कहीं से निकलकर आएगा और बोलेगा, ''प्रियंका के गाल, रेशम का रुमाल..ओ तेरा क्या कहना.''

फिर होगी देश की बड़ी बहस. गाल का जवाब..हेमा की कमर से दिया जाएगा?

हमें आएगा मज़ा. हम लग जाएंगे.

और जो जवान मरे हैं, उनका परिवार इंतज़ार करेगा. मुंहतोड़ जवाबों का. 26 जनवरी को पुरस्कार मिलने का और फिर वक़्त बीतने का.

इधर हम भी जवानों की चिताओं में आग लगते देखकर रोते बच्चों के वीडियो देखकर भावुक होएंगे. गुस्सा होएंगे. इज़ी टारगेट है न अपने पास since 1947.

डाल दो, सब उसी पर डाल दो. वो भी कम नहीं है. ‘ओपड़ दी गड़गड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल ऑफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट.’

हम सब करेंगे लेकिन बीच सेमेस्टर सवाल नहीं करेंगे.

कि भइया अचानक पाकिस्तान बर्थडे मनाने गए थे, क्या लाए? हमला.
कि ओ गुरू, भइया तुम्हारा नया नेता उस पार गले लगकर आया. क्या लाया? हमला.

मितरों, ठोको ताली. ठोको ताली. क्योंकि मैं और हम सब बिजी हो गए थे. अपने-अपने कामों में.

कश्मीर गए तो भावुक हुए कि 'आय हाय.. आज का ग़म कश्मीरी मांओं के नाम. सेना तो बहुत गलत कर रही है? गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्तो'

कश्मीर से लौटे और सेना का हमला हुआ तो 'पत्थरबाज़ों अब तुम्हारी खैर नहीं. मां तुझे सलाम.....भारत माता की जय.'

फिर बीतेंगे महीने. आएगा अप्रैल वाला ON THIS DAY. अक्टूबर फ़िल्म अप्रैल में आई थी. शिउली के फूल देखकर मैं, हम होएंगे रोमेंटिक.

उधर जो शहीदों की तस्वीरों पर फूल चढ़े होंगे वो उतार दिए जाएंगे, चढ़ाए जाएंगे प्लास्टिक के फूल की माला. नकली फूल गिरते नहीं हैं.

ध्यान रहे- सेना का जवान अब डरेगा नहीं, वो शहीद होना चाहता है.
घंटा.

कुत्ता जोर से भौंक दे तो बड़े-बड़ों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. गोली लगती होगी न...तो फट के 72 हो लेती होगी एक आम इंसान की. जवान शायद ट्रेनिंग, आत्मसम्मान और परिवारिक ज़िम्मेदारियों की वजह से डटा रहता होगा. वो शहीद होना शायद चाहता भी हो लेकिन एक ऐसे मुल्क में कार से किए हमले में मरना  नहीं चाहेगा...जहां नेताजी हेलिकॉप्टर से उड़ते हुए जाते हैं और ढाई हज़ार सैनिक बसों में घंटों सामान लादे जाते हैं और मरते हैं.

फिर आएगा मई. यू नो प्लेसमेंट का टाइम. जो भी नए राहुल, नरेंद्र होंगे. वो काम में लग जाएंगे और हम लग जाएंगे अपने-अपने पाले की पार्टियां चुनने में.

ये सवाल खुद से करना भूल जाएंगे,

'सरहदों पर बहुत तनाव है क्या?
जरा पता तो करो चुनाव है क्या?'

अंत में ज़ोर से बोलो...भारत माता की जय.

अहा. अब सब ठीक है.

टिप्पणियाँ

  1. बीच सेमस्टर कोई सवाल नहीं करता ।
    इसलिए ही तो
    बर्बाद होते जातें हैं सब जो खुशहाल थे कभी ।
    सच्चा सार्थक लिखा आपने

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