गांवलॉग: पुरानी डेहरियों की दरारें



पुरानी लकड़ी से बनी डेहरियों की दरारों में मिट्टी थी.

गर्मी की छुट्टियों में पायलेट पेन की निबों से इन्हीं दरारों से मिट्टी निकालना कितना आसान था.  मिट्टी सिर्फ़ आंधियों से नहीं जमा हुई होगी. ये मिट्टी घरों से जाते-आते लोगों के पैरों की भी हो सकती है, शुक्र रहा कि ये बात बचपन को पता न चली. वरना पेन के निबों के टूटने पर पड़ती मार से कहीं ज़्यादा दुख जाए हुए लोगों के लौटकर न आने का होता.

गांव में घर के दरवज्जे की डेहरी बड़ी है. इतनी बड़ी कि दादी जब बैठतीं तो मैं उनकी गोद में रखकर पूरा लेट जाता. पैर तब छोटे थे और दादी की गोद बड़ी.

इंसान जब जलाया जाता है तो आख़िर में वही हिस्सा बचता है, जहां कोई अपना सिर रखता है.  बैठे हुए लोगों की गोद में सिर रखकर लेटते वक्त कभी महसूस ही नहीं होता कि जब कुछ नहीं बचेगा, तब भी ये होना बचा रहेगा.

दादी जब साल 2011 में मरीं...इसके आगे कई लाइनें लिखकर मिटाना मेरे ज़िंदगी के सबसे अच्छे फ़ैसलों में से एक है. दुखों को लिखकर ख़त्म नहीं करना चाहिए. कतार में खड़े छोटे सुख अचानक आ जाएं तो न सुखों के साथ इंसाफ़ होता है और न भोगे दुखों के साथ. दादी जब मरीं तो गांव मर गया.




गांव जाने का फिर मन होना बंद हो गया. आंधियों में बाग की ओर दौड़ना. भैंस के चारे में आटा लगाना. नदी किनारे भूत वाले पेड़ से कैथा तोड़ना. दुधाड़ी में चढ़े दूध की मलाई चाटना. महुआ बिनना. बिच्छू को चिमटे से पकड़कर खेत में फेंकना. तारों की कुल्फी में उंगलियों की डंडी लगाना.  रात में जुगनुओं को ये समझ पकड़ना कि दिल्ली ले जा सकूंगा. अचानक रात में मुंह पर दादी का ओडोमास लगाना...

नहीं, अब गांव जाने का मन नहीं होता.

मगर जैसा कि हिंदी फ़िल्मों में मुख्य किरदार की एक बार वापसी ज़रूर होती है. मेरी भी हुई. मैं मुख्य किरदार नहीं था. वो महादेव थे. मैं सस्ता और बीपीएल कार्ड वाला नंदी था, जिसको सावन में गांव जाना मांगता है.

क्यों? काहे को? किसलिए? वजह?

या सब तुमका काहे बताई, तुमरी दीन रोटी खाइत है...जउ जवाब देई तुमका?



हां तो मैं जब गांव गया तो पहले उतरा मेरा बैग. फिर मेरे जूते. फिर मैं...ये सोचते हुए कि कहीं किसी कोने से कई कैमरे मेरे को शूट कर रहे होंगे. मगर जब मैं उतरा तो नीचे काला कुत्ता  बैठा हुआ था और मेरा बैग उस कुत्ते की संभवत: दुम पर उतरा था तो क्रमश: जब बैग के बाद मेरा जूता उतरा तो भिगा के मारने के लिए कुत्ते की लपलपाती जीभ मेरा इंतज़ार कर रही थी.

कुत्ते के भौंकने को मेरे 'चल हट्ट' कहने ने वैसे ही चुनौती दी, जैसा आए दिन कोई मरगिल्ला बनारसिया अमरीका को देता है. लिहाजा मैंने घटनास्थल और आंचलिकता का सम्मान करते हुए अवधी में जैसे ही 'दुर्रे' कहा, कुत्ते ने मेरी बात सुनी और 'ग्लोबल वॉर्मिंग के मसले में पेड़ सहयोगी हैं'- इस सच को जानते हुए वो पेड़ सींचने के काम में लग गया.




गांव की सड़क से नीचे उतरो तो इंस्टाग्राम पर '4 नाइट, फाइव डे' का कोई ग्रीनकालीन पैकेज वाली जगह का आभास होता है. हालांकि इन रास्तों पर पहले चल चुका हूं लेकिन तब अपने ग्राम के रास्तों पर चलते हुए इंस्टाग्राम का 'हैशटैग रूरल इंडिया' वाला रास्ता नहीं दिख पाता था. अब दिख पाता है.

गांवों में नाचता कोई मोर अपना बूमरेंग देखेगा तो खुद से बोलेगा- ऐ मोर, ये दिल मांगे मोर.

गांवों में मिट्टी के मकान अब सारे ढह से गए हैं. कच्चे घर अब पक्के हुए हैं और पक्के घरों में बचे कुछ ही लोग कच्चे हुए हैं.

गांव पहुंचा तो एक दूर के बाबा आए और मेरे पैर छूते ही बोले- ये क्या वेशभूष बना रखी है, दाढ़ी कटाते क्यों नहीं? जी तो आया कि बाबा को बाबा साहेब आंबेडकर बना दूं और पूछूं- वेयर इज माई संवैधानिक अधिकार बाबा साहेब?

फिर लगा यार छोड़ो. सब माया है.

बाबा साहेब और माया से याद आया. गांव में मज़दूर लगे हुए थे. एक पानी भरी टंकी उठाने के लिए रिश्तेदारों ने  बुला लिया. मुझसे न उठी तो मैंने कहा- इन मज़दूरों से बोलिए हेल्प करवा दें. जवाब मिला- 'पगला गए हो का, ई पंचन से घर के बर्तन छुआए जइहें.'

मन में ख्याल आया कि 270 रुपये की पॉपकॉर्न खाते हुए जब हम जाति पर बनी कोई फ़िल्म देखकर 'आहा, वाहा.. समाज बदलेगी फ़िल्म...स्वाहा' करते हैं तो गांव में उन लोगों पर क्या फर्क पड़ता है जो उससे गुज़र रहे होते हैं.

क्या किसी करोड़पति ज़िम्मेदार डायरेक्टर ने ये ज़रूरत समझी कि जब नेटफ्लिक्स और अमेजॉन से कमाई हो जाए तो किसी चमार टोले में फिल्म लोगों को दिखाई जाए. क्या किसी ने ये कहा? या सब हीरो का इंतज़ार कर रहे हैं, जैसे मैं भी कर रहा हूं इस बात को सिर्फ़ लिखकर.

गांव में नदी बहती है. मन हुआ जाने का, किनारे बैठने का. जैसे ही ज़िक्र छेड़ा तो किसी ने कहा- अरे दुई दिन पहले दुई लड़िका बहि गें, हुंआ  न जाओ वरना बूड़िहो तो लाश पता नहीं कहां तो जाके मिली?

ये सुनता ही नदी का ख्याल बदला और मेरे दिमाग में कोने में मार्केड सेफ लिखा दिखा. नदी का कॉन्सेप्ट छोड़कर मैंने कुंआ देखना चुना. छोटे में लगता था कि बाल्टी में बैठकर जाऊं और कुएं में नहा आऊं.



लेकिन हिम्मत नहीं हुई और ट्यूबवेल से नहाकर बचपन का एडवेंचर पूरा होता था. अब पानी भरने की सारी हौदियां सूखी पड़ी हैं. इमली के पेड़ पर एक मोर नहीं दिखा. पेड़ के नीचे सिर्फ इमली की पत्तियां गिरी थीं, इमली शायद बिग बाज़ार में बिक रही थीं.

नागफनी भी अब सेफ नहीं है. कांटों की तारों से नागफनी बचाई जा रही हैं. मालूम होता है कि दोनों ने कॉर्पोरेट कंपनी जॉइन की है. कंपनी से याद आई दिल्ली.



गांव से दिल्ली लौटते हुए लखनऊ से ट्रेन पकड़नी थी. लखनऊ, जहां पत्रकारिता की पहली नौकरी की.

हज़रात...हज़रात...हज़रात. हज़रतगंज.



नौकरी करने जब गया था तो जिस बिल्डिंग में अखबार का दफ्तर था, उसके गार्ड को भी नहीं मालूम था कि ऊपर कल्पतरू एक्सप्रेस नाम का कोई अखबार छपता है.

आईआईएमसी के बाहर स्थापित सरस्वती माता याद आ गईं. अगले कुछ महीने जब अपनी गलतियों से औकात पता चली तो लगा- दिल्ली में होता तो लतिया दिया जाता.

अब जब कई बरस बीते तो मैं भारी बस्ता उठाए उसी बिल्डिंग के नीचे जा खड़ा  हुआ. नहीं, नहीं मैं उस बिल्डिंग को खरीदने नहीं गया था. बस देखने गया था वो सीढ़ियां जिन पर चढ़ते उतरते लगा था कि यार...

उर्दू में लखनऊ के मेट्रो स्टेशनों के नाम, इन द टाइम ऑफ योगी आदित्यनाथ

मैंने सोचा ज़रा  लखनऊ मेट्रो भी ट्राई की जाए. बैग भारी था तो मेट्रो में घुसने में एक पैसेंजर को हल्का सा धक्का लग गया. वो पूरे लखनऊवा अंदाज़ में मुझसे कह बैठे- मेट्रो में पहिली बार चढ़े हो क्या?

मेरे लब तो ख़ामोश रहे लेकिन गुर्राती आंखों ने जवाब दिया- दिल्ली से हूं BC.

हमारी रगों में खून दौड़े न दौड़े मेट्रो ज़रूर दौड़ती है, दरवाज़े दाईं तरफ़ और दिल बाईं तरफ़ खुलेंगे.

बहरहाल मेरी उम्र के नौजवानों और नौजवानियां जब ट्रेन में बैठते हैं तो 'सामने वाली सीट पर कौन होगा? या होगी?' जैसे लघु प्रश्नों के उत्तर खोजने में व्यस्त रहते हैं.

इस मामले में जिसको होना है होए...पर मैं अपवाद नहीं हूं.

हां तो सामने वाली सीट पर अमीनाबाद की खुशबू लिए एक कन्या आईं. नीचे कोई दाढ़ी वाले भाईजान थे जो कंबल लगाने और बिछौना तैयार करने में लगे हुए थे. कन्या कहती- ओहो, कुछ खाने को लाना रह गया. भाईजान अपनी अम्मी और कन्या की चाची को वहीं छोड़कर गए और लाल वाले लेज़ ले आए. फिर पानी ले आए. फिर चॉकलेट ले आए.

अरे कोई तो रोक लो...

दोनों के बीच ऐसा प्रेम देखकर मुझे लगा- वाह भाई बहनों में कितना प्यार है. फिर अचानक वाले सडंली में ये ख्याल आया कि अरे ये मुहब्बत भाई-बहन वाली भले ही दिख रही हो...पर भविष्य में शौहर और बेगम वाली प्लानिंग प्लॉटिंग न चल रही हो.

मेरा ये सोचना था और मुझे अचानक लाल वाले लेज़ में निकाह के छुआरे दिखने लगे. मैंने उम्मीदों का डेटा ऑफ किया.

अपर बर्थ में लेटा हुआ ट्रेन की छत्त देखने लगा तो सोचा- एक खिड़की होती कांच की तो तारे दिख रहे होते. मैं उंगली की डंडी से तारों की कुल्फी बनाता और मक्खी मच्छर भिनभिनाते तो एक बूढ़ा हाथ मेरे गालों पर ओडोमॉस लगाता.

घर की डेहरी पर अब आंधी के नहीं, मेरे पैरों की मिट्टी होगी. दादी मर गईं तो गांव मर गया.


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