हमारे चेहरों से तैयार होती भीड़...


औज़ार की धार जब पैनी होती है, तब सबसे ज़्यादा ख़तरा बेकसूरों की सांसों को होता है.

धार पैनी करते वक़्त चिंगारियां निकलती हैं. इन चिंगारियों से कभी कोई आग नहीं लगी लेकिन पैने हुए औज़ारों ने कई सपने ख़ाक किए.

ये औज़ार किसने पैने किए? ताकतवर हुकूमत ने या उस भीड़ ने, जिसकी तस्वीर हमारे चेहरों से पूरी होती है.

साहिल नाम का लड़का इसलिए मार दिया जाता है, क्योंकि भीड़ को लगा कि वो मुसलमान है. लड़की से पार्किंग को लेकर बात इतनी बढ़ती है कि लड़कों की भीड़ आकर दो लड़कों को खूनम खच्चर कर देती है. कुछ साल पहले भीड़ फ्रिज टटोलकर एक ज़िंदा आदमी को ठंडा गोश्त कर देती है. यही भीड़ गुजरात में ट्रेन जलाती है और फिर सोसाइटियां. कुछ और पीछे चलें तो यही भीड़ काला धुआं फेंकते जलते टायरों को बाल खोलकर भागते सिखों को पहना देती है. जैसे वो जलता टायर मौत का औज़ार नहीं, मंगलसूत्र हो.. जिसे बालों के धोखे में भीड़ ने गर्दन में डाल दिया था. अहिंसा की बात करने वाले गांधी के दौर तक भी चले जाओ, तब भी ये भीड़ 1947 में बेकसूरों को मारते-मारते जान से मारती दिख जाती है.

कभी गाय, कभी धर्म, कभी चुनाव, कभी गोद में चढ़ा कोई मासूम बच्चा.

बीते दिनों गोद में लिया कोई बच्चा याद कीजिए. जो गोद में आते ही हँसने लगा था. या आपके अपने घर का कोई बच्चा, जिसे आप सबसे नन्ही उंगली पकड़कर चॉकलेट दिलाने ले गए हों.

तभी एक भीड़ आपकी गोद से बच्चा छीने और चोर-चोर कहते हुए आपको इतना पीटे कि आप कभी उस बच्चे को न देख पाएं, जो खड़ा इंतज़ार कर रहा है कि आप उसकी चॉकलेट का पैकेट फाड़ेंगे, तब वो खा पाएगा.



ये कौन सी भीड़ है, जो लोगों की हत्या कर देती है. किस बात का बदला ले रहे हैं हम लोग? गुस्सा दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ों में से है. लेकिन ये कैसा गुस्सा है जो किसी की जान ले लेता है. ये गुस्सा उन डरपोक लोगों का है, जो क़ातिल कहलाने से डरते हैं और इसीलिए भीड़ की शक्ल में आते हैं. जैसे बड़ी कंपनियों में एक सिस्टम आपका शिकार करता है, ठीक वैसे.

मगर ये जान लेती भीड़ किसने पैदा की, जिसमें हम सबके चेहरे शामिल हैं?

नहीं, ये भीड़ नरेंद्र मोदी ने नहीं पैदा की है. अगर ये बेकाबू भीड़ मोदी ने पैदा की है तो फिर राजीव गांधी, इंदिरा नेहरू और महात्मा गांधी सब के सब दोषी हैं. सबने इस भीड़ के हाथ में अपने-अपने वक़्त में पत्थर पकड़ाए हैं.

हां इन सभी ने पत्थर से पत्थर मारने पर निकली चिंगारियों से पैदा हुए लावे जैसी भीड़ पर मिट्टी नहीं...तेल डाला. रोकने की कोशिशों से ज़्यादा असर ख़ामोशियों का हुआ. नतीजा सब चुप रहे और उस कविता को भूल गए, जिसके आख़िरी में लिखा था- फिर कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता.

हम सब चुप रहते हुए अपने-अपने हितों की परवाह करने वाली भीड़ बन गए हैं. ये भीड़ एक किनारे पर खड़े रहकर दूसरे किनारे पर जानलेवा भीड़ को ख़ामोशी से देख रही है. ये भीड़ उसी किनारे से कह रही है कि कितना ग़लत हुआ.

मगर कोई उस दरिया को पार नहीं करना चाह रहा, जिसमें उतरने से पहले हितों का लिबास उतारना पड़ेगा. कुछ होंगे, जिन्होंने ये हिम्मत दिखाई होगी मगर वो इतने कम हैं कि उनके मारे जाने की अधूरी कहानियां मिनटों में सुनाई जा सकती हैं. अधूरी कहानियों के दर्द लंबे वक़्त तक साथ रहते हैं, लिहाज़ा हम सब बस अपने काम की कहानियां सुनते हुए भीड़ बनते गए.


घंटों से खाली खड़े रिक्शों को लांघकर ई-रिक्शा में बैठती भीड़. ई-रिक्शों, ऑटो को छोड़ कैब बुलाती भीड़. बस में किसी की जेब कटे तो पहले अपनी जेब टटोलती भीड़. हाईजीन के नाम पर ठेले वालों को भूखा मरते छोड़ती भीड़. कारख़ानों में दम घुटते नौकरों को देख अपना रूमाल निकालती भीड़.

हम सब एक 'घंटा फर्क नहीं पड़ने वाली' भीड़ में बदले जा रहे हैं... अपने-अपने औज़ारों को पैना  करते हुए. एक रोज़ चिंगारी निकलेगी और जैसे अमेज़न जल रहा है... हम सब इस निकली चिंगारी से अपनी-अपनी भीड़ वाली तस्वीर में जलकर ख़ाक हो जाएंगे.

हम सब गिरेंगे एक दिन. कुछ भीड़ के हाथों. कुछ उस एकांत के हाथों, जिसमें भीड़ की वाजिब शिकायतें होंगी. जिसमें हम कुछ भी कह लें...हमारा सच हमें मालूम होगा.

बुरा सिर्फ़ उन बेकसूर सांसों का होगा, जो अंजान थीं और उस बच्चे का जो हमारी लाश के पास चॉकलेट का पैकेट खुलने का इंतज़ार कर रहा है....

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