सीलमपुर ट्विटर पर टॉप ट्रेंड है. ज़्यादातर सीलमपुरियों से बताएंगे तो वो इसका मतलब तक नहीं जानते होंगे. लेकिन वो कुछ बातें अपनी पैदाइश से जानते हैं.
जैसे ये कि एक खिड़की से मंदिर की आरती सुनाई देगी और दूजी से अजान. सीलमपुर से जाफ़राबाद की तरफ़ बढ़ने पर भी कसाईखाने से घिरी गलियों के बीच में कमाल होटल के पास मंदिर मिल जाएगा. मंदिर की सीढ़ियों के ऊपर गोश्त पकाने की लकड़ियां आज भी रखी रहती हैं. कितनी दफा हुआ है कि पुजारी बाबा जब मंदिर न होते तो नाती पोते खेल में इन्हीं लकड़ियों को जलाकर खेल-खेल में हवन करते. ये सीलमपुरियों के लिए आम सी बात है.
लेकिन कुछ मौके हुए हैं, जब ये सीलमपुर...सीलमपुर नहीं रह जाता है. फिर चाहे कांग्रेस के विधायक रहे मतीन अहमद के 'भतीजों' की हिंदू मोहल्लों में गुंडागर्दी हो. या फिर बसपा के हाजी अफज़ाल का नाम लेकर पंडितों के घरों में चलती रामायण को रुकवाना. बीते कुछ सालों में सीलमुपर के हिंदुआनी इलाक़ों की हल्की बहसों में इंतक़ाम पैदा हुआ है. लिहाज़ा जो कभी चौड़ में आते थे, वो दबते चले गए.
अब 'खाटू श्याम का छठां विशाल जागरण' होता है तो सड़क के डिवाइडर उखाड़ दिए जाते हैं. सीलमपुर मार्केट की दुकानों पर वर्चस्व स्थापित कर चुके गोयल, अग्रवालों की मेजों के नीचे बैंकों से ज़्यादा चंदे की पर्चियां जमा होने लगी हैं. उधर रविवार को 'लब बे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी..' के ठीक बाद मस्जिदों में चंदे का सिलसिला शुरू होता है तो गिनने बैठो. तब ख़त्म होता है, जब लाख-दो लाख जमा हो चुके हों.
सीलमपुर में मुसलमानों की मस्जिदें और हिंदुओं के विशाल जागरण तेज़ी से बढ़ रहे हैं. साथ ही बढ़ रहा है वो डर, जिसे कभी इलाके के बहुसंख्यक रहे हिंदुओं ने झेला था. डर कि रात को 15-20 लोग दरवाज़ा ज़ोर से भड़भड़ाएंगे और घरवालों को घसीटकर निकालकर पीटेंगे.
ये जो कैब और एनआरसी है, इसे खाटी सीलमपुरिया कभी नहीं समझ पाएगा. हां लेकिन वो इतना समझ गया है कि ये सरकार मुसलमानों को निकालना चाहती है. आप इनसे पूछेंगे कि कैसे? तो ये कहेंगे- 'भाई ये न पता, कालू भाई ने कयी थी कि इकट्ठे होना है और सामने वाले की कनपटी पे रसीद देना है.'
हर सरकार में कालू भाई रहा है. जब-जब कालू भाई ने चाहा तब-तब सीलमपुर जैसे कितने ही इलाक़ों में भीड़ इकट्ठा हुई है. 'इंतकाम से पैदा हुए इंतकाम' लिए...अंदर जो भरा है उसे मनमर्ज़ी से बाहर उड़ेलते हुए.
माफ़ कीजिएगा लेकिन तार काटने, कबाड़े का काम करने, बैल्डिंग करने, मोबाइल चोरों, स्मैगियो और मैकनिकों की एक बड़ी आबादी के सामने जब आप लोकतंत्र या संविधान की प्रस्तावना बोलेंगे तो वो आपको गांधी नगर के ई-रिक्शा में बैठा देगा. क्योंकि सीलमपुरिए इंसानियत तो जानते हैं लेकिन जब आप विरोध प्रदर्शन कहेंगे तो वो ये सही समझेंगे कि 'पत्थर मारके आंख फोड़ देनी है ठु्ल्ले की.'
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स्कूल बच्चों की बस के पीछे खड़ी बस पर पत्थर फेंकने जैसा अपराध नहीं करना है, इतना समझदार सीलमपुर होता तो वो सीलमपुर न होता... न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी बन चुका होता. बाक़ी मासूम बच्चों की बस पर कोई पत्थर फेंक सके, ऐसा सीलमपुर यकीनन अभी भारत में नहीं है.
गौर कीजिए. रात को आठ बजे या किसी भी घटना को इवेंट में बदलकर राष्ट्र के नाम संदेश देने वाले क्या कर रहे हैं? वो चुनावी रैलियों में विरोध प्रदर्शनों के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. जबकि अगर कांग्रेस इतनी ही काबिल होती तो सत्ता में होती. महीनों पहले कर दिए जाने वाले प्रदर्शन के लिए दिसंबर की गुनगुनी धूप का इंतज़ार न करती.
क्या आपने उनसे एक गंभीर अपील सुनी? या सिर्फ़ नोट को रद्दी का टुकड़ा बताने के लिए ही टीवी पर आएंगे? जब देश की बड़ी आबादी एक काग़ज़ के टुकड़े की वजह से ख़ुद के रद्दी होने के ख़ौफ़ में जी रही है, तब कैमरे से ऐसी दूरी क्यों?
क्योंकि सत्ता इस देश में अभी और सीलमपुर चाहती है. ताकि दरारें बढ़ सकें.
लेकिन, जो सत्ता में बैठे हैं वो एक बात याद रखें कि अंत में देश के सारे सीलमपुर... सीलमपुर ही साबित होंगे. जहां जब 1984 में सिखों जलाया गया था तो न जाने कितने ही सरदारों को हिंदुओं और मुसलमानों ने बचाया था. वही हिंदू और मुसलमान जिनकी आड़ में अपनी नाकामियों को छिपाने और सत्ता को बचाने की कोशिश हो रही है. लेकिन एक दिन मिलेगी सिर्फ़ हार...
तब सीलमपुर नहीं, आपकी हार टॉप ट्रेंड होगी. सीलमपुरिए तब भी टॉप ट्रेंड नहीं समझ पाएंगे.
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एक सीलमपुरिया
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