क्या काग़ज़ का टुकड़ा किसी की जान ले सकता है?
'पति अच्छा ख़ासा खा-पीकर घर से निकला. एनआरसी लिस्ट देखी तो अपना नाम नहीं मिला. उसे तभी दिल का दौरा पड़ा और वो वहीं मर गया.'
माबिया बीबी असम की अकेली औरत नहीं हैं, जिनके किसी अपने की मौत एनआरसी को लेकर पैदा हुए डर, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने या डिटेंशन कैंप में हाज़िर होने के फरमान से हुई. कोई दिल के दौरे से मरा. किसी ने फांसी लगा ली.
बेटे की लाश की तरफ़ बूढ़ी मां की नज़र तब गई, जब पेड़ के नीचे बेटे की चप्पल देखी. असम में एनआरसी की प्रोसेस जैसे-जैसे बढ़ी, रिसर्च करने वालों की गूगल एक्सल शीट में मरने वालों के नाम जुड़ते गए.
अंगत सूत्रधार. सायबुन नेसा. जमीर ख़ान. अकलीमा. हनीफ़ ख़ान. गोपाल दास. अबोला रॉय. बिनय चंद्र. राजेश सिंह. मोनास अली.
इनमें से कुछ के घर जब जाओ तो बूढ़ी मां हाथों में पन्नी लिए बाहर आती है. वोटर आइडी कार्ड भी दिखाती है और आधार भी. फिर आखिर में बेटे की फोटो दिखाती है. असमिया या बंगाली भाषा में वो जो बोलती है...स्पष्ट समझ नहीं आता है. लेकिन आंखें देखकर इतना समझ आता है कि कह रही है- ''बेटा मर गया मेरा...लौटा सकते हो?''
बिनय चंद्र की मां |
हम अपना सा मुंह लिए बिना जवाब दिए आगे बढ़ जाते हैं. ये मरने वाले हिंदू भी थे और मुसलमान भी.
सादुल्लाह अहमद का नाम जानते हैं आप?
जब कारगिल युद्ध का सायरन बजा तो बेस पर पहुंचने वाले शुरुआती लोगों में से एक. सादुल्लाह अहमद का एनआरसी लिस्ट में नाम नहीं आया...यानी कारगिल की जंग लड़ने वाला भारतीय नहीं?
सेना में 30 साल रहे रिटायर्ड सूबेदार मोहम्मद सनाउल्लाह को विदेशी नागरिक बताकर डिटेंशन केंद्र भेज दिया गया था. क्या कागज का टुकड़ा बताएगा कि कौन भारतीय नहीं है या नहीं?
असम में ब्रह्मपुत्र किनारे एनआरसी कवर करते हुए मैंने न जाने कितने ही परिवार देखे थे, जिनके कागज-दस्तावेज़ बाढ़ में बह गए थे. भारत में एक अच्छी खासी आबादी अब भी नदी किनारे रहती है. बाढ़ में अपने दस्तावेज़ों को बहाते हुए... ये जाने बिना कि जो बहा वो दस्तावेज़ नहीं- नागरिकता है.
दिन के 100 रुपये कमाने वाले लोग 300 रुपये खर्च करके हाज़िरी लगाने जाते. रातों को रुकना पड़े तो खर्चा अलग.
आप सोचते हैं कि सरकारी दावों के मुताबिक प्रशासन से आर्थिक मदद भी तो ली जा सकती है...तो एक काम करिए. किसी सरकारी अस्पताल में दांत का एक्स-रे करवाने चले जाइए. दांत जब उखड़ेगा तब उखड़ेगा...हौसला पहले ही उखड़कर ऐसे गिरेगा कि कोई मुआवज़ा भरपाई नहीं कर पाएगा.
एक राज्य में जब ये हुआ, तब ये हाल था. सोचिए जब पूरे भारत में होगा तब क्या होगा?
शरणार्थियों को लाना अगर समाधान है तो 1979 का रंगघर याद कीजिए. 1979 से शुरू हुआ असम आंदोलन आने वाले सालों में सैकड़ों लोगों की जान का दुश्मन बना. 1983 में असम के नेल्ली में हुए नरसंहार में सैकड़ों लोगों की जान गई.
आपके लिए शरणार्थी...किसी दूसरे के लिए घुसपैठिया हो सकता है. किसी दूसरे का घुसपैठिया आपके लिए शरणार्थी हो सकता है. नियम आप ही तय करेंगे. लेकिन इससे किसी गली मुहल्ले या गांव में अचानक नेल्ली नरसंहार की आशंका बना रहेगी.
लेकिन इसकी चिंता कोई क्यों ही करे. जब एक वाकय का ये नियम सेट कर दिया गया है,
नागरिकता की पहचान- हिंदू या मुसलमान...
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