''एक ग़ज़ल जो है, वो नहीं गाते हैं. आज आहिस्ता, आहिस्ता को नहीं गाते हैं.
जैसे लैला मजनूं की कहानी है. शीरी फरहाद है. ऐसे ही एक रामी धोबन थी. उनके आशिक थे चंडीदास.
गई जब रामी धोबन..धोबन समझते हैं न आप?
गई एक दिन जब रामी धोबन दरिया पे नहाने को
वहां बैठा था चंडीदास अफसाना सुनाने को
कहा उससे कि रामी छोड़ दे सारे ज़माने को
बसाना है अगर उल्फत का घर आहिस्ता आहिस्ता...''
लोहे, शीशे की दीवारों में रहते हुए कोई उल्फत का घर बसाने को कहता है. दिल इसी बहाने न जाने कितने दुख मुस्कुराकर सहता है. उल्फत का घर बसाने को कभी हमारी ज़िंदगियों में कोई जगजीत सिंह कभी जग्गी बनकर, कभी चित्रा बनकर आते हैं. बेचैनियों में हम समझाते हैं कि उल्फत का घर कितना ज़रूरी है. कोई 'कुछ रिश्तों का नमक दूरी, न मिलना ज़रूरी' बता सकता है. लेकिन इन रिश्तों को भी एक शीरमाल चाहिए होती है. जो दूरियों से गिरे आंसुओं के नमक के स्वाद को ज़बान और गालों से हटाती है..आहिस्ता आहिस्ता.
शीरमाल से याद आया... ''शीरी और फरहाद का किस्सा आ गया है.
दिल में कह रहा था फरहाद
शीरी से जुदा होकर
मुहब्बत की गली में हमने क्या पाया है दिल खोकर
उठाया उसने नेज़ाब और कहा नेज़े से यूं रोकर
मेरे दिल के टुकड़े करो मगर आहिस्ता, आहिस्ता...'
लेकिन टुकड़े सिर्फ़ दिल के नहीं होते हैं. किस्सों के भी होते हैं. अलबत्ता यूं कहें कि बात एक ही है. तो किस्सा दूसरी तरफ लिए चलते हैं. एक पुराना किस्सा जोड़ लेते हैं.
‘हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है, उधर आहिस्ता आहिस्ता’
जग्गी ये लाइन जैसे ही पढ़ते हैं, इसे सुनते ही बराबर में मुस्कुराती चुपचाप बैठी चित्रा शरमा जाती हैं. तीर घर के दिल में लगा है, ये अहसास होते ही जगजीत भी पॉज़ लेते हैं और आख़िरी की लाइन को झटके मारते और चित्रा की तरफ़ झुकती हुई गर्दन के साथ पॉज़ लेते कहते हैं. ‘इधर. तो. जल्दी. जल्दी. है. उधर. आहिस्ता. आहिस्ता.’
प्यार में इंसान क्यों कुछ बावला सा हो जाता है या ये धरती ख़त्म होने के बाद भी क्यों जी उठनी चाहिए, इसकी कई वजहों में एक वजह यहाँ मिलती है, अपने जग्गी के इस आहिस्ता आहिस्ता में. ‘पंजाबी टप्पे’ के बाद ऐसा कुछ मिल जाएगा, सच में ये बात ख़यालों में भी कभी ना रही. पर इसे देखने के बाद एक बार फिर मन कर गया है कि जग्गी ज़िंदा हो जाएँ और ये दोनों किसी तरह एक साथ ऐसी ही शरारतें करने किसी स्टेज पर आ जाएँ... आहिस्ता आहिस्ता.
पंजाबी टप्पे में थी न एक लाइन.. 'जो तेरे हुक्म होवे मैं ता दाढ़ी भी रख लांगा.'
चित्रा से इजाज़त लेने के बाद बर्थडे बॉय जग्गी (8 फरवरी) को हुक्म देने का मन करता है. कि ज़रा एक बार और आओ. इस दौर के फ्रेज को ग़ज़लों में फ्रीज़ करो.
'कोई फरियाद मेरे दिल में बसी हो जैसे' वो यही कि इस आदमी को ज़िंदा कर दूं और गोद में ले जाकर कोक स्टूडियो में बैठवा कर बोलूं, 'जगजीत जी गाइए न, चित्रा जी भी आती होंगी.' और जब चित्रा आएं तो वो दोनों साथ में गाएं 'ऐथ्थे प्यार दी पूछ कोई ना... मज़ा प्यार दा चख लांगे..हुंड़ अस्सी मिल गए हां'
हो सकता है ये सब कभी सच न हों. लेकिन खयाल अगर चेहरे पर कुछ पल की मुस्कान ला रहा है तो क्या हर्ज है.
तब तक अपनी ज़िंदगी में रामी धोबनों, चंडीदासों, शीरी, फरहादों, लैला और मजनुओं का इंतज़ार करते हैं... आहिस्ता, आहिस्ता.
Bahot Khubsurat!!!
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