मुंबई की लोकल में साजन फर्नांडिस घर लौट रहा है.
ट्रेन में खचाखच भीड़ है. एक बूढ़ी औरत साजन को घूर रही है. साजन नज़रें बचाता हुआ इला को बता रहा था कि चीज़ें उतनी ख़राब नहीं होती, जितनी दिखती हैं.
उस पल की हक़ीक़त पता चलते ही साजन हल्का सा मुस्कुराता है. उस मुस्कुराहट से कुछ इंच ज़्यादा मुस्कुराती है वो बूढ़ी औरत. चिट्ठी में ये बात पढ़ रही इला तक पहुंचते-पहुंचते ये मुस्कान हँसी में बदल जाती है.
ये हँसती हुई इला कहानी में आगे जब गलत पते पर रोज़ रखे जाने वाले 'लंचबॉक्स' की टेबल पर पहुंचती है तो जवाब मिलता है- वो तो चले गए.
उस रोज़ ये सुनकर इला की गायब हुई हँसी जैसे उदासी में बदली थी. आज उस साजन इरफ़ान ख़ान के जाने के बाद गायब हुई हँसी लगातार बीच-बीच में टपके जा रहे आंसू के साथ गायब हुई जा रही है.
साजन के किरदार निभाने वाले इरफ़ान नहीं जानते थे कि कई बार चीज़ें उतनी ख़राब नहीं होती, जितनी दिखती हैं. वो उससे भी ज़्यादा ख़राब होती हैं. इतनी ख़राब कि लगता है कि लिखकर भी क्या बदल जाएगा.
काश कि ज़िंदगी वीडियो गेम की तरह कई लाइफ़ लिए होती. तो अभी इरफ़ान की बड़ी-बड़ी आंखें क्यारियों से झांक रही होतीं. एक अजीब सा अजनबीपन लिए. जो जब बोलतीं तो ऐसा लगता कि इसे इतना सब कैसे मालूम है.
पुराने कारखाने की मेरी डेस्क पर इरफ़ान ख़ान का पोस्टर था. जब इरफ़ान कारखाने आए तो मेरी डेस्क तक आए. झुककर इरफ़ान ने 'साजन' की तस्वीर में खुद को देखा. मैंने साजन सी एक्टिंग वाले इरफ़ान को देखा. आदमी मरता है तो रत्तीभर भी याद कितनी बड़ी होकर खड़ी हो जाती है. मानो जैसे कह रही हो- देख ले पागल तूने क्या खोया है.
पुराने कारखाने का वो कोपचा याद आ रहा है. जगहों के बदलने से तस्वीरें बदल गईं. लोग बदल गए. इरफ़ान के फ़िल्मी लंचबॉक्स को आज भी खोलूं तो देखते हुए वही स्वाद आता है. लेकिन डियर साजन, 'फूड वॉज वेरी सॉल्टी टुडे' इन योर लंचबॉक्स.
जयपुर और टोंक बचपन गुज़ारना. रेडियो स्टेशनों पर आती कहानियों, ड्रामा चिपककर सुनना. खाला के घर से सटा सिनेमाघर में कभी भी घुस जाना. किसी दोस्त से मिथुन जैसा दिखने की खुशफहमी. लगान के गुरन राजेश विवेक को जुनून फ़िल्म में देखकर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए जुनून. फिर नाटक. सीरियल. फिल्में. रेयर कैंसर और अपने बीमारी के दिनों में ऑडियो रिकॉर्डकर किया एक वादा- Wait for me.
अब इस वादे के पूरे होने का इंतज़ार करें या जाने दें? आदतन तो सोचेंगे कि तू होता तो क्या होता. मगर जाने दे. सब कुछ दिनों में भूल जाएंगे. कुछ फ़िल्में अब क्लासिक कहलाई जाने लगेंगी. लेकिन इरफ़ान ये जानते थे कि कौन सी फ़िल्में वाकई फिल्में होती हैं.
इरफ़ान ने अपने राज्यसभा टीवी वाले हमनाम से कहा था, ''कुछ लोग होते हैं, जो ये कहते हैं कि मैं सोसाइटी के लिए सोचता हूं, इस मुद्दे पर बात करना चाह रहा हूं. मैं ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं करता. वो एक मुद्दे का सहारा लेकर खुद को फिल्ममेकर इस्टेबलिश करना चाहते हैं. मुद्दों से उनका कोई लेना देना नहीं है. मुद्दे किस तरह फिल्म के अंदर स्मगल किए जाने चाहिए. ये फिल्मक्राफ्ट होता है. मेरी अब तक यही कोशिश रही है.''
इरफ़ान मुद्दे स्मगल करना चाहते थे. ये मुद्दे कई बार इतने मामूली होकर भी इतने भरपूर थे कि कितने रिश्तों की जिल्द खुलकर पुरानी कॉपी भी नई लगने लगती है.
'वो स्कूटर है या बेच दिया?
हां बेच दिया.
पर शीशा रखा है उसका.'
कितने लोग होंगे, जो अपने स्कूटर, मोटरसाइकिलों के शीशे बचाए रखते होंगे. प्यार में डूबा क़रीब-करीब सिंगल का योगी बचाए रखता है. जो शादी बाद अपनी प्रेमिका के बच्चों से मामा-मामा सुनता है और ऋषिकेष की गंगा में कूद जाता है. फिर गंगटोक की ऊंचाइयों में उड़न खटोले पर अपनी बड़ी आंखों के साथ कहता है- एक बात पूछूं आपसे.... पानी शेयर करोगी?
''पिछले गुरुवार को मैंने अपनी जान लेने की कोशिश की. कोई खास वजह नहीं है. कोई तनाव भी नहीं है. मन ऊब गया है. वही शोर, वही आवाज़ें... शिकायत नहीं है. अजीब सा एहसास है मन में, अजीब. जिस रोज़ नया दिन निकलता है. मैं वही पुराना हूं. दुनिया वही पुरानी है. वैसे ही चली जा रही है. मुझे लगा भाई जो ये ज़िंदगी की गाड़ी चल रही है. इसकी चेन मैं खींचता हूं और मैं उतर जाता हूं...... मेरा ध्यान गया खिड़की की तरफ. खिड़की के बाहर बहुत ही खूबसूरत इंद्रधनुष था. मैंने सोचा कि इसको देखते देखते तो नहीं मरा जा सकता है. मैं उठा खिड़की बंद करने के लिए... वापस लौटा तो मूमेंट चला गया.... आख़िरी बार ठीक से तब सोया था, जब अपने गांव गया था. मां की गोद में सिर रखकर सोया था. बहुत गहरी नींद आई थी. नींद तो मां की गोद में आती है.''
रोग फ़िल्म में इरफ़ान के किरदार उदय ने गुरुवार को जान लेने की कोशिश की थी. लेकिन असल ज़िंदगी में बुधवार जान वसूलने वाला दिन रहा. अस्पताल की खिड़की से कोई इंद्रधनुष नहीं दिखा. आज वाला भी मूमेंट चला जाता तो सही रहता. अब कहीं बैठा अपनी जन्नतनशीं अम्मी की गोद में सिर रखकर सो रहा होगा. जाते-जाते इरफ़ान अपने आख़िरी शब्दों में और कह गए- अम्मा मुझे लेने के लिए आईं हैं.
''आप डकैत कैसे बने?
अरे तू पूरो पत्रकार बन गो है कि ट्रेनिंग पे है? जे इलाके का होके भी पतो नी है. बीहड़ में बागी होते हैं. डकैत मिलते हैं पारलियामेंट में.''
पान सिंह तोमर में इरफ़ान की पीली आंखें कितने सारे डॉयलॉग्स की जगह भर गईं. स्क्रिप्ट का कोई भी प्रिंट आउट उन आंखों से कहे शब्दों को कैसे दर्ज कर पाएंगी.
'तुमको याद रखेंगे हम गुरु.... आई लाइक आर्टिस्ट.' यही डायलॉग इरफ़ान का हासिल रहेगा.
वो कहता है ना हासिल फ़िल्म का गौरीशंकर, 'तुम्हारी जान जाने वाली थी आज. हमने रोक लिया. कि रुको कुछ दिन बाद जाना. धन्यवाद दो हमारा...लेकिन आज के बाद 'इनभर्सिटी' में झंडा उठाया तो.... तो कम कर दिए जाओगे. दो मिनट का मौन होगा तुमरी याद में. तुमरी पार्टी के गुंडे आके गाना वाना गा देंगे कि चलते चलते मेरे गीत याद रखना. और क्या होगा बे? नेशनल हॉलीडे होगा क्या बे तोरी याद में?'
हासिल के रणविजय और ज़िंदगी की रण हार चुके इरफ़ान को गौरीशंकर की ज़रूरत थी. जाती जान को रोक लेते तो डॉक्टरों से कहलावर गुरिल्ला वॉर की जाती. गुरिल्ला वुरिल्ला सब पढ़ लिए हैं अब रणविजय भइया.
फिर हैदर के रूहदार की तरह इरफ़ान कहते- 'आप मरने वाले हैं डॉक्टर साहब, मैं नहीं मरने वाला. आप जिस्म हैं, मैं रूह. मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा.'
रहूंगा...
''गुस्सा है तुम्हें? किस पर गुस्सा है तुम्हें? आदमी पर है. किस्मत पर? भगवान पर है? लोगों पर है? निकाल दो उसे. गुस्से को अंदर नहीं रखना चाहिए. निकाल दो. रिलेक्स करो. वन टू...आआआआआआआआ आआआआआआआआआ. आआआआआआआआ. निकाल दो. निकाल दो. अभी सर्विसिंग हो गई है तुम्हारी. जब गुस्सा आए तो उसे अपना थ्रोट ऑफर कर देना चाहिए.''
'लाइफ एन ए मेट्रो' की ऊंची बिल्डिंग में खड़े मोंटी और रोती श्रुति की तरह साथ के दोस्तों के साथ बैठकर आज अपना गला ऑफर करना था. शराब पीकर अगर गम कम होता तो आज बिस्मिल्लाह हो चुका होता. या इरफ़ान के रेयर कैंसर की तरह जो मेरे रेयर यार हैं, उनके साथ बैठा होता. लेकिन जैसा कि मोंटी ने कहा था- ''ये शहर हमें जितना देता है, बदल में कहीं ज्यादा ले लेता है.'' इस शहर के दिए लॉकडाउन ने साथ गम मनाने तक का पल ना दिया.
इरफ़ान की मेहनत, नसीब और चुनाव भी कितना हसीन था. फ़िल्मी लेखकों, डायरेक्टर्स ने ऐसे सीन लिखे कि आज कुछ भी लिखने बैठो तो कंधे के पीछे महसूस होता इरफ़ान कह रहे हैं- ऐ..हे.हहह... ये क्या लिख रा है तू? ये तो मैं फ़िल्म में बोल चुका, कुछ नहीं बचा तेरे लिखने को.
''आदमी का सपना टूट जाता है ना तो कुछ नहीं बचता.''
ये सच बताना ज़रूरी है कि मैंने इरफ़ान की सारी फ़िल्में नहीं देखीं. कुछ फ़िल्में बाकी हैं. अब लगता है कि सारी देख लेता तो दुख कम होता या कहीं और ज्यादा.
2015 के भयंकर भूकंप के तेज़ झटकों के बीच बैठकर भूकंप की खबर लिखी है. तब उतने झटके महसूस नहीं हुए जितने आज इरफ़ान की मौत पर कुछ लिखते हुए हो रहे हैं. इन सबसे गुज़रते हुए, इस लिखे हुए के इस शब्द....तक पहुंचना आसान नहीं रहा. इरफ़ान ख़ान पर मुझे सब लिखना था लेकिन मौत के बाद ऐसा कुछ नहीं लिखना था. ये इरफ़ान और मेरे लिखने दोनों के साथ नाइंसाफ़ी रही. इरफ़ान के जाने की नाइंसाफी में एक कतरा मेरा भी रहा. इरफ़ान पर हमारे लिखने से क्या ही बदल जाएगा. मगर जैसा कि इरफ़ान ने खुद कहा था- एनजाइटी से बहुत दूर भागता हूं, पुरानी जद्दोजहद है एंजाइटी से. बस लिखकर वही एंजाइटी से भाग रहा हूं. मकबूल की तरह आत्मग्लानि से भरा हुआ.
ये भागना शायद वैसा ही था, जैसे पीकू में राणा भागना चाह रहा था और अंत में खुले दरवाज़ों के साथ बैडमिंटन खेलना चुन पाया.
अब जब भागते भागते एक रोज़ मुंबई के जिस स्टेज पर आज इरफ़ान को लिटाया गया है. पक्का कब्र में लेटते ही कारवां फ़िल्म के शौकत की तरह इरफान अपना ही डायलॉग बोल पड़े होंगे- उन्होंने हमें ज़िंदा दफन कर दिया ये सोचकर कि हम मर जाएंगे, लेकिन उन्हें पता नहीं था कि हम तो बीज हैं. हमारा दफन होना हमारी विलादत है.
किसी रोज़ उसी कब्र के पास खड़े होकर कारवां के शौकत की तरह इरफ़ान से बोलूंगा- ऐ मैय्यत पर रोमांस मत कर.
मुहब्बत थे इसलिए जाने दिया, ज़िद होते तो बांहों में होते... मानो या ना मानो!
मैं आपके ब्लॉग का कई चक्कर लगा चुका था सोचा अब आप लिखोगें, उससे पहले मैंने आपका पुराने कारखाने का वो वीडियो देखा जिसे सुमेर sir ने शेयर किया हैं, उस कोने को भी देखा जहाँ, आपने उनकी और मंटो की तस्वीर लगा रखी थी। मैं उम्मीद कर रहा था कि आप कुछ ऐसा ही लिखेंगे, मैं दुखी हूँ कि उनकी मौत हुई पर मैं खुश हूँ कि आप ने लिखा, और मुझे मौका मिला एक फ्रेम में अपने दो पसंदीदा लोगो को देखने का 💐
जवाब देंहटाएंआपकी सोच और शब्दों को मैं सजदे से सलाम करती हूँ।
जवाब देंहटाएंhttps://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2895333187241205&id=100002936578571
जवाब देंहटाएंइस तरह याद रहने वाले जाकर भी कभी नहीं जाते.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख .
नमन 🙏
उम्दा बेहतरीन बार बार पढ़ने वाला आलेख 👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दिल निकाल कर रख दिया आपने
क्या कहना
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