Gotham सिटी में आर्थर खून थूकता गिरा पड़ा है.
भीड़ आर्थर के लिए चिल्ला रही है. उसे अपना हीरो मान रही है. इस बात से ख़ुश कि उसने एक मशहूर टीवी एंकर का लाइव शो में गोली मारकर माथा छेद दिया था. फिर उसी एंकर के कैमरे में जाकर बड़े प्यार से बोला था- डैट्स लाइफ.
बीमारियों और आर्थिक गैर-बराबरियों से तंग आ चुकी भीड़ सड़क पर लूटमार कर रही थी. या ये कहें कि अपना हक छीने ले रही थी.
गैर-बराबरी से भरता और लगातार भरता जा रहा भारत मुझे जोकर फ़िल्म के क्लामेक्स की पूरी आशंकाएं समाए दिखने लगा है. ऐसा होना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं. क्योंकि ये गैर-बराबरी इस कदर फैली है कि हम सब इसमें शामिल हैं. लेकिन जैसे-जैसे पद और ज़िम्मेदारियां बड़ी होती जाती हैं, गैर-बराबरी करने की लत बढ़ती जा रही हैं. मज़दूरों पर मार्मिक ख़बर दिखाने वाले 'सच्चे' पत्रकार और सेना के बड़े अधिकारी कैसे अपने से नीचे वालों से घर के काम करवाते पाए गए, फिर काम पूरा होते ही पल्ला झाड़ते पाए गए, ये इस गैर-बराबरी का पलकों से ढका लेकिन पुतलियों से दिख रहा सच है.
लेकिन ये सच देश चला रहे लोग भी नहीं देखते. वो अपनी धुन में मस्त रहते हैं. मार्च की बरसती रातों में हज़ारों, लाखों मज़दूर पैदल चले जा रहे थे. दो महीने बाद भी वही हालात हैं. कहीं पेट में सात महीने का बच्चा लिए औरत चले जा रही है. कहीं कोई बूढ़ा एक्सीडेंट के बाद ख़ून का थक्का लिए 12 घंटे से इंतज़ार कर रहा है. किसी टेस्ट का नहीं, किसी इलाज का नहीं...इस बात का कि चलकर जल्दी से घर पहुंच जाऊं.
ये शहर जो इतने भरे लगते थे, लाखों लोग जब घर लौटने के लिए सड़कों पर निकले तो पता चला कि शहर जितना भी भर जाए, घर नहीं हो सकता. वो घर कहीं और होता होगा. जहां रोटी तो नहीं होती होगी लेकिन घर होता होगा. घर होना रोटी खाना होता होगा. पेट भरा रहता होगा.
जिनका पेट खाली रहता होगा वो कुछ शहरी रोटी बांध लेते होंगे कि रोटी वाला घर दिखना शुरू होने तक ये आटे वाली रोटी को घर मानकर लिए चलते हैं. ताकत आएगी. ताकत के आने का नहीं पता लेकिन नींद आ जाती है. झोले में रोटी, आसमां में चांद और आंखों में थकने के बाद की नींद. ना जाने मरने वालों के फ़ोन में आरोग्य सेतु ऐप था या नहीं, जो काश ये बता पाती कि ट्रेन आ रही है, उठ जाओ, जब ट्रेन चली जाए तो फिर सो जाना.
इरफ़ान होता तो कहता- अबे क्या लिख रहा है भइये.. नींद तो मां की गोद में आती है.
मैं कहता- चुप करो यार, अब तुम मर गए हो... तुमको नहीं पता, नींद पटरी पर भी आती है.
पटरी पर ट्रेन ना आती तो उन मज़दूरों की नींद भी पूरी हो जाती, घर के क़रीब भी पहुंच जाते, रोटी भी वेस्ट ना होती और हां, गैर-बराबरी के दौर में सबसे 'गैर-ज़रूरी चीज़' मज़दूरों की जान भी बच जाती.
फिर सरकार और ट्विटर पर टॉप ट्रेंड में आ सकने की ताकत रखने वाली मुख्य धारा मीडिया करोड़ों लोगों को बताती कि कैसे सरकार की कोशिशों ने बचाई लोगों की जान. इस बात पर कोई गौर ही ना करता कि जान बचाने की कोशिश करना ये बताता है कि किसी ने जान लेने की कोशिश की. जाने-अंजाने फैसले करने वालों ने ये कोशिश की है.
मज़दूरों, ग़रीबों के लिए जितना कुछ किया जा सकता है, सरकार नहीं कर रही है. इस बात को कहने के लिए बैलेंस जर्नलिज्म या साइड लेने, ना लेने जैसा कुछ नहीं है. सब कुछ सामने दिख रहा है. पटरियों पर रोटी नहीं, फैसला करने वालों की नीयत पड़ी है. इस फर्जी नीयत को आप, मैं या हम जैसे कुछ हज़ार या मैक्सिमम एक लाख लोग कह या लिख भी लें. कोई फर्क नहीं पड़ेगा. कतई नहीं पड़ेगा.
भारत जैसे देश में मेरी समझ में फर्क सिर्फ़ वो मुख्यधारा का मीडिया पैदा कर सकता है, जिसके एंकर अब ज़हरीले हो चुके हैं. देशों में आंदोलनों को खड़ा करने या ख़त्म करने में ऐसे ही चैनलों की भूमिका रहती है, जो करोड़ों घरों में देखे जाते हैं. ये लगातार 24 घंटे दिमाग में घुसे हुए हैं. शर्त लगा सकता हूं कि कोई बड़ा चैनल मज़दूरों पर लगातार दो दिन ढंग से कवरेज कर दे, आप देखेंगे कि आपको मज़दूरों के मुस्कुराते चेहरे दिखने लगेंगे. लेकिन ये सारे चैनल और इनके एंकर जीभ से सिर्फ़ खाने का स्वाद नहीं ले रहे हैं.
इतने जानकार, अर्थशास्त्री क्या-क्या सलाह दे रहे हैं, सरकार ने किसी एक सलाहकार की बात को इम्प्लीमेंट किया हो... ग्राउंड पर ऐसा नहीं दिख रहा. एम्स डायरेक्टर ने कहा कि कोरोना तो अभी जून जुलाई में असली रंग दिखाएगा. आप सोचिए कि तब क्या होगा? दो महीने पहले भी कोरोना टेस्टिंग के मामले में हम कई छोटे देशों से पीछे थे और आज भी हैं. हर बात में पाकिस्तान से कॉम्पिटिशन करते हैं, टेस्टिंग के मामले में शायद अब भी हम पीछे हैं. 'मोदी से कांपा इमरान' चलाने वालों कहां गया तुम्हारा ईमान?
इस देश की बड़ी आबादी को मालूम भी नहीं चलेगा कि जिस टीवी को देख वो गुमराह हो रहे हैं, इसी टीवी के रास्ते लोगों की मौत की वजह आएगी. बिना आवाज़ के किसी चांदनी रात में मालगाड़ी की तरह. रसोइयों में रखी रोटियां रखी रह जाएंगी. बाद में वो कैमरे वाले आएंगे और मौत पर लिखने वाले मौत पर लिखते-लिखते ख़ुद को मौत के करीब पाएंगे.
लेकिन इन सारे गैर-बराबरी करने वालों को ये बता देना ज़रूरी है कि जब तुम्हारी रीढ़ की हड्डी गिरवी रखी गई थी, जब तुम्हारी गैर-बराबरियां चरम पर थीं. तब मुझ समेत कई और जोड़ी आंखें हैं, जो पलकों से भले ही बंद दिखती हों पर वो तुम्हारा सच जानती थीं. तुम्हारी गैर-बराबरियों का पूरा हिसाब जानती थीं. तब ये आंखें भले ही बंद हो चुकी हों लेकिन वो तुम्हारी आंखों में घूर रहे होंगे. जैसे जोकर में आर्थर ने घूरा था ये कहते हुए- यू गेट वट यू फकिंग डिजर्व.
सुभानाल्लाह
जवाब देंहटाएंभाई माशाल्लाह
क्या गज़ब का व्यंग्य लिखे हैं आप जनाब
dhukhad...
जवाब देंहटाएंजबरदस्त व्यंग्य लिखा है विकास जी। 👌🏻
जवाब देंहटाएंजोकर फ़िल्म से जोड़कर परिस्थिति को बेहतर तरीके से बताया। Good Work
जवाब देंहटाएंAccha kam kiya ek anchor
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