ये दुनिया इतनी बड़ी. हर जगह इंसान ही इंसान.
फिर भी 70 फीसदी हिस्से में सिर्फ पानी ही पानी. ये पूरा पानी मीठा नहीं है. खारा है. या यूं कहें कि नमकीन है. बचे हुए 30 फीसदी में क्या है? 30 फीसदी में वो सच है जो आपको कोई नहीं बताएगा.
30 फीसदी धरती एक गोल गप्पा है. जो धरती की ही तरह लगभग गोल है. कभी सख्त पहाड़ों जैसे. कभी नरम बर्फ जैसे.
हर इंसान खुद को कहता है कि वो इमोशनल है, जल्दी भावुक हो जाता है. असल में ये लाइन गोलगप्पों से चुराई गई है. दुनिया को प्रेमिका के हाथों की तरह नहीं, गोलगप्पों की तरह मुलायम होना चाहिए था. मुलायम तब जब साथ पूरा करने वाला साथी मिले. तब तक इतने सख्त बने रहे कि कोई नमी छू ना पाए.
जब भी बहुत खुश हुआ या बहुत दुखी हुआ. कई बार जब पेट भरने लेकिन पैसे बचाने का मन हुआ तो ये 10 रुपये में पहले दर्जनों और अब आधा दर्जन से ज्यादा मिलने वाले आटे के गोलगप्पे ही तो थे जो हमेशा साथ रहे. ये वही गोलगप्पे हैं, जो आप जब किसी अपने के साथ खाते हैं तो एक याद जुड़ जाती है. ये याद इतनी गहरी होती है कि फिर जब आप जीवन में कभी भी गोलगप्पे खाते हैं तो आपको वो इंसान याद आता है जिसके साथ आपने गोलगप्पे खुद के जीवन में शामिल किए थे.
ना जाने वो कौन लोग हैं, जो नशा करने के लिए दारू पीते हैं. अरे बांगडू, गोलगप्पे स्वयं नशा हैं.
महादेव के दौर में अगर किसी ने गोलगप्पे की रेहड़ी लगाई होती तो वो दुनिया भुलाने के लिए भांग नहीं, गोलगप्पे खाते. विष की जगह गोलगप्पे का पानी पीकर दुनिया पर आने वाला हर संकट समेट लेते.
लेकिन जैसे-जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है. वैसे वैसे खतरा 70 जमा 30 फीसदी वाले गोलगप्पों और पानी पर भी मंडरा रहा है. ये खतरा इतना बढ़ गया है कि गोलगप्पे के पानी की ओजोन परत आए दिन चोटिल की रही है.
'दिल्ली से हूं बीसी' पंक्ति का झंडाबरदार होने के बावजूद ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि गोलगप्पे दिल्ली ने सबसे ज़्यादा बर्बाद किए. अरे मित्र, अगर इतनी सूजी है तो कुछ करते क्यों नहीं? गोलगप्पे बना देने से सूजी तो ख़त्म होगी लेकिन कितना कुछ और होगा जो खत्म हो जाएगा.
सूजी के गोलगप्पे कैपेटिलिज्म हैं. समाजिक, आर्थिक, भौगोलिक और राजनीतिक तौर पर सूजी वाले गोलगप्पे का जन्म वाइट सुप्रीमेसी को स्पेशल फील करवाने के लिए हुआ. वरना इनकी कोई ज़रूरत नहीं थी. आटे वाले गोलगप्पे समाजवाद हैं. सस्ते, स्वादिष्ट, पसीने से चूर... पॉलिथिन लिपटे हाथों वाले गोलगप्पों से दूर.
आटे वाले गोलगप्पे सस्ते होते हैं. ये मुंह में जाकर पूरी तरह गलते नहीं हैं. ये आपकी ज़बान, दांत का साथ चाहते हैं. जबकि सूजी वाला गोलगप्पा मुंह में जाते ही अपने अस्तित्व को भूल जाता है. इतनी जल्दी घुलता है कि जैसे तुम बिन फिल्म का 'जानता हूं कि आपको सहारे की ज़रूरत नहीं, मैं तो सिर्फ साथ देने आया हूं' कहने आया हो. जबकि गोलगप्पा तो वही जो थोड़ा गले और थोड़ा गले में जाकर फँसे कि इंसान जल्दी से कहे कि भैया थोड़ा पानी दो.
पर आज जब गोलगप्पों का सूजीकरण तो हुआ ही है. साथ ही ज़िंदा उबली साबुत मटर या आलू का टुकड़ा उसके साथ मुंह में जाता है तो लगता है कि इस दुनिया में बचाने लायक अब क्या बचा है सरताज. मन कवि हो जाना चाहता है.
कोई मोमोज बचाएगा कोई मैगी की जवानी
कोई बिरयानी बचाएगा कोई चाप अफगानी
मैं निपट अकेला कैसे बचाऊंगा गोलगप्पे?
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